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________________ मैं शाश्वत समय हूं का सौंदर्य इतना हावी हो जाएगा। और सुंदरतम स्त्री को भी, अगर कीर्ति न हो, तो उसकी सुंदरता ऊपर चमड़ी पर होती है। और थोड़ी ही देर में भीतर की कुरूपता दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। इसलिए आज अगर पश्चिम में स्त्री-पुरुष के बीच के सारे संबंध टूट गए हैं, दिन दो दिन से ज्यादा नहीं टिक सकते। महीने दो महीने टिक जाएं, तो काफी लंबे हैं। साल दो साल टिक जाएं, तो मानना चाहिए कि महान घटना है। उसका कारण सिर्फ इतना ही है कि सौंदर्य एकदम छिछला है। और पश्चिम में आज सुंदरतम स्त्रियां हैं, संभवतः पृथ्वी पर सर्वाधिक सुंदर स्त्रियां हैं। लेकिन सौंदर्य छिछला है। स्किनडीप! जितनी चमड़ी की गहराई है, उतनी ही सौंदर्य की गहराई है। और जैसे कोई व्यक्ति करीब आता है, थोड़े दिन में ही चमड़ी के सौंदर्य के पार जो विराट कुरूपता छिपी है, वह दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। वही सारे संबंधों को क्षीण कर जाती है और तोड़ जाती है। कृष्ण कहते हैं, स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति... । श्री भी स्त्रैण गुण है, जैसे कीर्ति । कीर्ति एक साधना है। और जब कीर्ति फलित होती है, और जब कीर्ति में फूल लगते हैं, और जब कीर्ति घनी होती है, और जब कीर्ति केवल मातृत्व नहीं रह जाती, बल्कि जब स्त्री को यह बोध भी मिट जाता है कि मैं स्त्री हूं... क्योंकि मां का बोध भी स्त्री का ही बोध है। और कितना ही ऊंचा हो, मां होकर भी स्त्री स्त्री तो बनी ही रहती है। लेकिन जब कभी ऐसी घटना घटती है, कीर्ति के आगे के कदम पर जब कि स्त्री को यह बोध भी नहीं रह जाता कि वह स्त्री है, तब उसमें श्री का फूल खिलता है। तब उसमें एक सौंदर्य आता है। उस सौंदर्य को हम अपार्थिव कह सकते हैं। वह कभी किसी मीरा में दिखाई पड़ता है। कभी किसी मरियम में वह दिखाई पड़ता है। बहुत मुश्किल से ! श्री कृष्ण कहते हैं, स्त्रियों में श्री मैं हूं। लेकिन जब कभी वह फूल खिलता है— मुश्किल से खिलता है - लेकिन जब कभी वह फूल खिलता है, तो स्त्री स्त्री नहीं होती। पुरुष के प्रति पुरुष होने का जो खयाल है, वह भी खो जाता है। और जिन मुल्कों ने इस श्री को उपलब्ध करने की क्षमता पा ली थी, न मुल्कों ने अपने ईश्वर की धारणा स्त्री के रूप में की मां के रूप में की। जिन मुल्कों में स्त्रियों की साधना इस जगह तक पहुंची कि इस आंतरिक, आत्मिक श्री को उपलब्ध हो गई, उन मुल्कों ने अपने परमात्मा की जो धारणा है, वह पुरुष के रूप में नहीं की है। इसे हम समझें थोड़ा। जर्मनी अपने मुल्क को फादरलैंड कहता है, पितृभूमि ! हम | अपने मुल्क को मातृभूमि कहते हैं, मदरलैंड कहते हैं। जर्मनी ने | कभी भी श्री जैसी घटना नहीं देखी। उसने पुरुषों का बड़ा विकास | देखा है। पुरुष के जो गुण हैं, जर्मनी में अपने चरम शिखर को पहुंचे हैं। इसलिए जर्मनी का अपने मुल्क को फादरलैंड कहना ठीक है। पितृभूमि ! स्त्री गौण है, उसने कभी वैसी चरम स्थिति नहीं पाई। पश्चिम में पुरुष के गुणों ने बड़ी गहनता से विकास किया । लेकिन पूरब ने स्त्री के गुणों को बड़ी गहनता से विकसित किया। और मजे की बात यह है कि पुरुष के गुण विकसित हो जाएं, तो अंतिम परिणाम युद्ध होगा, क्योंकि पुरुष के सारे गुण योद्धा के गुण हैं। और पुरुष का जो परम ऐश्वर्य है, वह उसके योद्धा होने में प्रकट होता है। फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा है कि जब मैं रास्ते पर सैनिकों को चलते देखता हूं, पंक्तिबद्ध, उनके जूतों की एक स्वर से गिरती आवाज, एक लय में बंधी, उनकी संगीनों पर चमकती हुई सूरज की किरणें, | उनकी पंक्तिबद्ध संगीनों पर पड़ती सूरज की झलक, तब जैसे | सौंदर्य का मैं अनुभव करता हूं, ऐसा सौंदर्य मैंने कोई और दूसरा नहीं देखा । पुरुष के गुण अगर विकसित होंगे, तो वे ऐसे ही होंगे। अभी पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने कहना शुरू किया है कि हमें पुरुष के गुणों के साथ स्त्री के गुणों को भी विकसित करना जरूरी | है। नहीं तो संतुलन टूट गया है। पूरब स्त्री के गुणों बड़ी गहराई से परखा और विकसित किया। और मैं मानता हूं कि अगर दोनों में चुनाव करना हो, तो स्त्री के गुण ही विकसित करने चाहिए, क्योंकि सब पुरुषों को स्त्री से ही पैदा होना पड़ता है । और अगर स्त्री अविकसित हो, तो पुरुष कभी विकसित नहीं हो पाते। और सब पुरुषों को स्त्री के पास ही बड़ा होना पड़ता है। पुरुष की जिंदगी स्त्री के आस-पास ही व्यतीत होती है— चाहे वह मां हो, चाहे वह पत्नी हो, चाहे वह बहन हो, चाहे बेटी हो - स्त्री के इर्द-गिर्द घूमती है। स्त्री केंद्र है, पुरुष परिधि है; वह आस-पास वर्तुलाकार घूमता है। अगर स्त्री के गुण विकसित न हों, तो समाज बहुत दीन हो जाता है। श्री जो है, स्त्री का चरम उत्कर्ष है। वह उसकी आत्मा है। जब | उसमें स्त्रैणता का भाव भी चला जाता है, तब वह दिव्य हो जाती है। कृष्ण कहते हैं, वह मैं हूं । वाक्, वाणी ! स्त्रियों को हम बहुत बातचीत करते देखते ही हैं। शायद बातचीत ही उनका धंधा है। लेकिन वाक् से इस बातचीत 207
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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