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________________ ॐ कृष्ण की भगवत्ता और डांवाडोल अर्जुन 8 तो नसरुद्दीन ने कहा कि यही समझाने के लिए कि कौन तय | | पोत लेते हैं। नास्तिक भीतर छिपा है। आस्तिक हमारे वस्त्रों से करेगा कि क्या सत्य और क्या असत्य है! फांसी लगाना तो बहुत | | ज्यादा गहरा नहीं है। आसान है झूठ बोलने वाले को, लेकिन तय कौन करेगा, कौन सत्य इस जमीन पर आस्तिक खोजना कठिन है, हालांकि आस्तिक है, कौन असत्य है! नसरुद्दीन ने सम्राट से कहा कि पहले अपना | सब दिखाई पड़ते हैं। और इस जमीन पर ऐसा आदमी खोजना कठिन ही पता लगाने की कोशिश करो कि सत्य हो कि असत्य, तब कहीं| है, जो नास्तिक न हो। यद्यपि नास्तिक एकदम से दिखाई नहीं पड़ता। दूसरे का कुछ हिसाब करना। यह मजा है। इसलिए दुनिया नास्तिक है। और एक-एक आदमी से कठिन है। लेकिन कठिन इसीलिए है कि भीतर कोई | मिलिए, तो वह आस्तिक है! सबका जोड़ नास्तिकता है। और सब क्रिस्टलाइजेशन, कोई केंद्रीकरण नहीं है। भीतर हम खाली, कोरे | अलग-अलग आस्तिक होने का दावा किए चले जाते हैं। उनकी हैं; कचरे से भरे हैं। दूसरों ने जो डाल दिया है, उससे भरे हैं। अपनी जिंदगी में हम उतरें, तो नास्तिकता के सिवाय कहीं कुछ नहीं मिलता। कोई अनुभूति न होने से हमारे पैर के नीचे कोई जमीन नहीं है। साईं, शिरडी के साईं के जीवन में एक उल्लेख है। उनके एक इसलिए हम नीचे देखने में भी डरते हैं। हम दूसरों को बताते रहते | भक्त ने कहा कि अब तो मैं सभी में परमात्मा को देखने लगा हूं। हैं, तुम गलत हो, तुम गलत हो, वह असत्य है। लेकिन हम कभी | | तो साईं बाबा ने कहा कि अगर तुम सबमें परमात्मा को देखने लगे यह फिक्र नहीं करते कि मेरे पास भी कोई मेरा सत्य है! | होते, तो इस भरी दोपहरी में मुझे नमस्कार करने किसलिए आते और जब तक कोई आदमी अपने सत्य की तलाश में न लगे, | हो? कहीं भी नमस्कार कर लेना था। अगर मैं ही तुम्हें सब जगह तब तक महर्षियों ने क्या कहा है, व्यास क्या कहते हैं, खुद कृष्ण | दिखाई पड़ने लगा हूं, तो इस भरी दोपहरी में इतनी दूर आने की क्या भी क्या कहते हैं, इसका मूल्य बड़ा नहीं है। अर्जुन क्या अनुभव | जरूरत थी? मैं वहीं तुम्हें मिल जाता; मैं वहीं था। करता है, इसका मूल्य है। कृष्ण क्या कहते हैं, इसका कोई मूल्य | | वह जो भक्त था, रोज भोजन लेकर आता था बाबा के लिए। अर्जुन के लिए नहीं है। अर्जुन क्या अनुभव करता है, इसका मूल्य | | और जब तक वे भोजन न कर लेते, तब तक वह खुद भी भोजन है। और उसकी अनुभूति इस सूत्र में जैसी प्रकट होती है, वह न तो | नहीं करता था। गहरी है, न एकस्वर वाली है, न उसमें सामंजस्य है। उसमें विपरीत तो साईं बाबा ने कहा, कल से अब तुम भोजन लेकर मत आना, एक साथ मौजूद हैं। दिखाई नहीं पड़ते हैं, वही खतरा है। वही मैं वहीं आ जाऊंगा। तुम मुझे पहचान लेना, क्योंकि तुम्हें दिखाई खतरा है पड़ने लगा है! वह भक्त बड़ी मुश्किल में पड़ा। भोजन की थाली __ अगर दिखाई पड़े कोई द्वंद्व, तो हम उसके बाहर हो सकते हैं। लगाकर वह अपने द्वार के वृक्ष के नीचे बैठ गया। अब वह प्रतीक्षा दिखाई न पड़े, तो बड़ा खतरा है। अर्जुन को भी पता नहीं है कि वह कर रहा है। और एक कुत्ता उसे परेशान करने लगा। भोजन की क्या कह रहा है। हम को भी पता नहीं है। सुगंध, वह कुत्ता बार-बार आने लगा। और वह डंडे से कुत्ते को जब आप मंदिर में जाकर कहते हैं कि हे प्रभु, मैं आप में श्रद्धा | मार-मारकर भगाने लगा। वक्त बीतने लगा और साईं बाबा का रखता हूं और समर्पण करता हूं। आपको भी पता नहीं है, आप क्या | कुछ पता नहीं, तो फिर वह थाली लेकर पहुंचा उस मस्जिद में, जहां कह रहे हैं। क्योंकि जो आप कह रहे हैं, वह बड़ा क्रांतिकारी साईं बाबा रहते थे। वक्तव्य है। अगर सच है, तो आप उस दुनिया में प्रवेश कर जाएंगे, अंदर गया, तो देखा कि साईं बाबा की आंख से आंसू बह रहे जो अमृत की है, आनंद की है। और अगर झूठ है, तो आपके | हैं। तो पूछा कि आप आए नहीं? और मैं राह देखता रहा। साईं बाबा साधारण झूठ उतना नुकसान नहीं करेंगे, जो आपने दुकान पर बोले | | ने कहा, मैं आया था। मेरी पीठ देख! पीठ पर उसकी लकड़ी के हैं, लेकिन यह मंदिर में बोला गया झूठ भयंकर है। | निशान थे, जो उसने कुत्ते को लकड़ियां मारी थीं। मैं आया था। तू क्या आपने कभी इसकी फिक्र की कि हम जो भी श्रद्धा के, | तो कहता था, सबमें तू देखने लगा, इसलिए मैंने सोचा, किसी भी भक्ति के, समर्पण के वक्तव्य देते हैं, उनमें हमारे प्राणों की कोई शक्ल में जाऊंगा, तू पहचान लेगा। तो मैं कुत्ते की शक्ल में आया भी गहरी छाप होती है! बिलकुल नहीं होती है। सच तो यह है कि | था। उस भक्त ने कहा, जरा भूल हो गई। ऐसे तो मैं सबमें आपको हम अपनी अश्रद्धा से इतने घबड़ा जाते हैं कि ऊपर से श्रद्धा का रंग देखने लगा हूं, लेकिन जरा कुत्ते में देखने का अभी अभ्यास नहीं 73
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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