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________________ गीता दर्शन भाग-58 जलाती, धुआं देती, फूल चढ़ाती। एक बार उसे चीन के बड़े बौद्ध यह सारा का सारा खेल एक बहुत मनोवैज्ञानिक बीमारी है। और मंदिर में ठहरने का मौका मिला। दस हजार बुद्धों का मंदिर, उस | | वह बीमारी यह है कि मुझे ठीक पता नहीं है कि सत्य क्या है। तो मंदिर का नाम है; उसमें दस हजार बुद्ध की छोटी-बड़ी प्रतिमाएं हैं।। | जब तक मैं दूसरों को असत्य सिद्ध करता रहूं, तभी तक मुझे भरोसा वहां वह ठहरी। कोने-कोने में बुद्ध की प्रतिमा है, दीवाल-दीवाल में | | रहता है कि मैं सत्य हूं। और अगर मैं दूसरों की भी गौर से सुनने बुद्ध की प्रतिमा है। दस हजार प्रतिमाएं हैं। प्रतिमाओं के सिवाय | लगं. तो मेरे भीतर सब डांवाडोल हो जाता है कि मैं सत्य हं या नहीं मंदिर में कुछ भी नहीं है। . | हूं! सत्य क्या है? जब उसने सुबह अपने बुद्ध की—अपने बुद्ध की प्रतिमा रखी | | मुल्ला नसरुद्दीन जिस राजधानी में था, वहां बहुत बेईमानी बढ़ और धूप जलाई, तो उसे लगा कि धूप तो उड़ जाएगी और दूसरे बुद्धों | | गई। और राजधानी में बेईमानी बढ़ेगी ही, क्योंकि बेईमान सब की नाक में चली जाएगी। और अपने बुद्ध की धूप और दूसरे बुद्धों | | राजधानियों में इकट्ठे हो जाते हैं। सब चोर, सब डाकू इकट्ठे हो जाते की नाक में चली जाए! तो उसने एक बांस की पोंगरी बनाई। धूप के | | हैं। अभी जयप्रकाश जी वहां चंबल में छोटे डाकुओं का समर्पण ऊपर पोंगरी लगाई और अपने बुद्ध की नाक के पास पोंगरी लगाई।। बड़े डाकुओं के प्रति करवा रहे हैं! बुद्ध का मुंह काला हो गया। हो ही जाएगा। हो ही जाएगा! सुगंध | तो राजधानी थी, डाकू इकट्ठे हो गए थे। सम्राट बहुत चिंतित था तो न मिली, मुंह काला हो गया। और मतांध भक्तों ने सबके मुंह कि कैसे इनको हटाया जाए। गांव के बुद्धिमानों से पूछा, कोई रास्ता काले कर दिए हैं—चाहे राम, चाहे बुद्ध, चाहे कृष्ण, चाहे क्राइस्ट, | | न मिला। फिर किसी ने कहा कि वह मुल्ला नसरुद्दीन भी अपनी चाहे मोहम्मद-सबके मुंह काले कर दिए हैं। इसमें भी भय पकड़ता | | तरह का एक बुद्धिमान है। शायद, हमारी बुद्धि काम नहीं करती, है कि दूसरा बुद्ध! बुद्ध की दूसरी प्रतिमा, वह भी दूसरा बुद्ध! | उसकी काम कर जाए। उसे बुलाया। सम्राट ने उससे पूछा कि क्या मैं एक गांव में रहता था। वहां गणेशोत्सव पर बड़ी गणेश की | | करें, लोग असत्यवादी होते जा रहे हैं! प्रतिमाएं निकलती हैं, प्रवाहित करने के लिए, विसर्जन करने के | तो नसरुद्दीन ने कहा, इसमें क्या कठिनाई है! जो असत्य बोलते लिए। लेकिन नियमित बंधा हुआ क्रम है। ब्राह्मणों के मुहल्ले की हैं, कम से कम एक असत्य बोलने वाले को पकड़कर रोज फांसी प्रतिमा आगे होती है, चमारों के मुहल्ले की प्रतिमा पीछे होती है। | | लगा दो चौरस्ते पर, लटका दो। तहलका छा जाएगा, लोग घबड़ा . एक वर्ष ऐसी भूल हो गई कि ब्राह्मणों की प्रतिमा के आने में देर | जाएंगे, फिर कोई असत्य-वसत्य नहीं बोलेगा। सम्राट ने कहा, लग गई और चमारों के टोले की प्रतिमा पहले आ गई, तो जुलूस | बिलकुल दुरुस्त। तो कल राजधानी के द्वार पर सिपाही तैनात रहेंगे के आगे हो गई। तो जब ब्राह्मणों की प्रतिमा आई, तो उन्होंने कहा, | और जो आदमी असत्य बोलता हुआ पकड़ा जाएगा, वह द्वार पर . हटाओ चमारों के गणेश को पीछे। ही सूली पर लटका दिया जाएगा। नसरुद्दीन ने कहा, तो फिर मैं चमारों के गणेश! ब्राह्मणों के गणेश, बात ही अलग है। चमार | | कल सुबह द्वार पर ही मिलूंगा। सम्राट समझा कि शायद वह अपने और ब्राह्मण तो ठीक, गणेश भी चमारों के और ब्राह्मणों के! बेचारे | सिद्धांत को प्रतिपादित होता हुआ देखने के लिए द्वार पर आएगा। चमारों के गणेश को पीछे जाना पड़ा। अपना-अपना भाग्य! चमारों | जब सुबह कल द्वार खुला नगर का, तो नसरुद्दीन अपने गधे पर के गणेश हो, पीछे जाना ही पड़ेगा! प्रवेश किया। सम्राट भी मौजूद था। सम्राट के हत्यारे भी मौजूद थे। यह मतांधता, यह संकीर्णता, यह अनुदारता पैदा होती है। भीतर फांसी का तख्ता लटका दिया गया था। सम्राट ने नसरुद्दीन से पूछा, एक भय है। भीतर एक भय है कि कहीं दूसरा सही न हो। कहीं नसरुद्दीन, सुबह-सुबह गधे पर कहां जा रहे हो? नसरुद्दीन ने दूसरे की बात सुनाई पड़ जाए, वह सही न हो। अपना तो कोई सत्य कहा, सूली के तख्ते पर चढ़ने। सम्राट ने कहा कि झूठ बोल रहे नहीं है, भीतर तो कोई सत्य नहीं है। दूसरे पर ही निर्भर है। कहीं | हो! तो नसरुद्दीन ने कहा कि तय हुआ था कि जो झूठ बोलेगा, औरों की बात सुनकर डांवाडोल न हो जाऊं। इसलिए सुनो ही मत, | उसको सूली पर चढ़ा देंगे। तो चढ़ा दो सूली पर, अगर मैं झूठ बोल पढो ही मत. समझो ही मत. दसरे को जानो ही मत। और दसरे से | रहा हूं। सम्राट ने कहा, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। अगर तुम्हें लड़ते भी रहो, और दूसरे से बचते भी रहो, और अपने को ही अंधे सूली पर चढ़ाऊं, तो तुम सच बोल रहे हो। और अगर तुम्हें छोड़ की तरह ठीक मानो और सबको गलत मानो। दं, तो मैंने झूठ बोलने वाले को छोड़ दिया। 72|
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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