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________________ 8 कृष्ण की भगवत्ता और डांवाडोल अर्जन सुविधा से कैसे माने ले रहा है? | मानता हूं। और जिनको मानना बिलकुल आसान है, प्रत्यक्ष है, नहीं; वह ऊपर से लीपापोती कर रहा है। वह अपने मन को | | उनको आप कभी मानने की बात नहीं करते। समझा रहा है। वह कोशिश कर रहा है कि मान जाऊं कि कृष्ण | शरीर को आप जानते हैं, आत्मा को आप मानते हैं। यह फर्क भगवान हैं। लेकिन भीतर प्रबल प्रवाह है अहंकार का। वह कहता समझ लें। पदार्थ को आप जानते हैं, परमात्मा को आप मानते हैं। है कि यह कैसे माना जा सकता है? जिस दिन परमात्मा भी जानना बनता है और जिस दिन आत्मा भी और ध्यान रहे, क्षत्रिय का अगर कोई सबसे ज्यादा विकसित जानना बन जाती है, उसी दिन, उसी दिन आपके भीतर एकस्वर का हिस्सा है, तो वह अहंकार है। वही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। जन्म होता है। अन्यथा आपके भीतर द्वंद्व और कलह मौजूद ही रहेंगे। क्षत्रिय का अगर कोई सबसे विकसित हिस्सा है, तो वह अहंकार | फिर जो आदमी जितना मान्यता में कमजोर होगा. उस मान्यता को है। वही उसकी कमजोरी भी है। वही उसकी हिंसा है, वही उसकी | | वह जिद्द से पूरा करता है। इसलिए कमजोर आस्था वाले लोग कलह है। उसी को वह बर्दाश्त नहीं कर सकता। और अर्जुन तो | | डाग्मैटिक हो जाते हैं। जितनी कमजोर आस्था वाले लोग होंगे, उतने कहना चाहिए, क्षत्रियों में श्रेष्ठतम क्षत्रिय है; शुद्धतम अहंकार है। | ज्यादा मतांध होंगे। क्योंकि उन्हें खुद से ही डर लगता है कि अगर उसके पास जो अस्मिता है, जो ईगो है, वह शुद्धतम क्षत्रिय की है। कहीं दूसरा मेरी मान्यता को खंडित कर दे या गलत कर दे, तो उन्हें उसको बहुत मुश्किल है यह बात मानने की कि कृष्ण भगवान हैं। खुद ही पता है कि हम तो भीतर तैयार ही हैं कि अगर कोई गलत कर उसे सिर उनके चरणों में रखना बहुत कठिन है। अति कठिन है। दे, तो हम भी गलत मान लेंगे। इसलिए किसी की बात मत सुनो, लेकिन कृष्ण की प्रतिभा, कृष्ण की आभा, कृष्ण का प्रकाश भी विपरीत विचार को मत सुनो, विपरीत शास्त्र को मत पढ़ो। उसे छूता है। कृष्ण का प्रेम, उनकी अनुकंपा भी उसे स्पर्शित करती हिंदुस्तान में...हिंदुस्तान को हम कहते हैं, बहुत उदार देश है। है। उसकी हृदय की पंखुड़ियां उनकी निकटता में खिलती भी हैं। लेकिन एक अनुदार धारा भी इसके नीचे गहरे में प्रवाहित रही है। उसके भीतर कुछ प्रतिध्वनित भी होता है। उनको पास पाकर वह | | और हमारा मन होता है अच्छी-अच्छी बातें मान लेने का, लेकिन जानता है कि सिर्फ आदमी के निकट नहीं है। यह कहीं गहरे में | खतरनाक है। क्योंकि बुरी बातें भी भीतर प्रवाहित होती हैं, और एहसास भी होता है। एक तल पर इनकार भी चलता है, एक तल उनको अगर हम भूले बैठे रहें, तो वे नासूर बन जाती हैं, घाव बन पर इसका स्वीकार भी होता है। और इन दोनों द्वंद्व के बीच में फंसा | जाती हैं; भीतर फोड़े पैदा करती हैं। हुआ अर्जुन है। यह द्वंद्व इस वक्तव्य में पूरी तरह साफ है। लेकिन हिंदू शास्त्रों में लिखा है, और ऐसा ही जैन शास्त्रों में भी लिखा एक मजा वह ले लेना चाहता है, और वह मजा यह है कि कुछ भी | है, और ऐसा ही बौद्ध शास्त्रों में भी लिखा है। करीब-करीब हो, आप जो कहते हैं, वह मैं सत्य मानता हूं। और देवता और दानव | | वक्तव्य एक से हैं। वह मैं आपको कहूं। भी जिसे नहीं जान पाते, वह भी कम से कम मैं तो मानता हूं। __शास्त्रों में लिखा है हिंदू, जैनों और बौद्धों के वक्तव्य एक से हैं। इस मानता शब्द पर भी थोड़ा विचार कर लेना उपयोगी है। आप लिखा है कि अगर कोई जैन मंदिर हो और हिंदू, मंदिर के सामने से मानते किन चीजों को हैं, कभी आपने खयाल किया है? गुजर रहा हो और पागल हाथी हमला कर दे, तो पागल हाथी के पैर आप उन्हीं चीजों को मानते हैं, जिन पर आपको शक होता है। के नीचे दबकर मर जाना बेहतर है, लेकिन जैन मंदिर में शरण लेना आप कभी कहते हैं, घोषणा करते हैं कि मैं सूरज में विश्वास करता | ठीक नहीं है! ठीक ऐसा ही जैन शास्त्रों में भी लिखा है कि पागल हूं? आप कभी घोषणा करते हैं कि पृथ्वी पर मेरा पक्का विश्वास हाथी के पैर के नीचे दबकर मर जाना बेहतर, लेकिन हिंदू देवालय है? कभी आप कहते हैं कि शरीर में मेरी बड़ी श्रद्धा है? में शरण लेना बेहतर नहीं है। कैसा यह डर! कैसा यह भय! न, आप कहते हैं, आत्मा में मेरी बड़ी श्रद्धा है। परमात्मा में मेरा | ये तो खैर हिंदू और जैन तो दो धर्म हैं, लेकिन राम-भक्त हैं जो बड़ा विश्वास है। मोक्ष में, मैं मानता हूं कि मोक्ष है। कान में अंगुली डाल लेंगे, अगर कोई कृष्ण का नाम ले! कभी आपने खयाल किया है कि आप उन्हीं चीजों पर मान्यता | कृष्ण-भक्त हैं, जो अंगुली डाल लेंगे, अगर कोई राम का नाम ले! का बल डालते हैं, जिनको आप नहीं जानते हैं। जिनको मानना | | सुना है मैंने एक बौद्ध भिक्षुणी के संबंध में, कि उसके पास एक बिलकुल असंभव मालूम पड़ता है, उन्हीं को आप कहते हैं, मैं | स्वर्ण की बुद्ध की प्रतिमा थी। वह रोज उसकी पूजा करती, धूप |71
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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