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________________ 8 विराट से साक्षात की तैयारी और जो शिष्य अपने गुरु से यह न पूछे कि मैं अपनी आंख से हमारी खिड़की है, उससे हम देखते हैं। इस खिड़की से तो विराट को देखना चाहता हूं, वह शिष्य ही नहीं है। जो गुरु के शब्द मानकर बैठ देखा नहीं जा सकता, क्योंकि यह खिड़की ही विराट पर ढांचा बिठा जाए और उन्हें घोंटता रहे और मर जाए, वह शिष्य नहीं है। और जो देती है। यह खिड़की के कारण ही विराट पर आकार बन जाता है। गुरु अपने शिष्य को शब्द घुटाने में लगा दे, वह गुरु भी नहीं है। आप अपनी खिड़की से आकाश को देखते हैं। आकाश भी कृष्ण प्रतीक्षा ही कर रहे होंगे कि कब अर्जुन यह पूछे। अब तक लगता है कि खिड़की के ही आकार का है। उतना ही दिखाई पड़ता की जो बातचीत थी, वह बौद्धिक थी। अब तक अर्जुन ने जो सवाल है, जितना खिड़की का आकार है। उठाए थे, वे बद्धिगत थे, विचारपूर्ण थे। उनका निरसन कृष्ण करते तो इन आंखों से तो विराट देखा नहीं जा सकता। इसलिए बड़ी चले गए। जो भी अर्जुन ने कहा, वह गलत है, यह बुद्धि और तर्क | हिम्मत की जरूरत है, अंधा हो जाने की। इन आंखों से तो सारी से कृष्ण समझाते चले गए। निश्चित ही, वे प्रतीक्षा कर रहे होंगे कि | | शक्ति को खींच लेना पड़े। और उस दिशा में शक्ति को प्रवाहित अर्जुन पूछे; वह क्षण आए, जब अर्जुन कहे कि अब मैं आंख से | | करना पड़े, जहां कोई खिड़की नहीं है, खुला आकाश है, तब विराट देखना चाहता हूं। देखा जा सके। उस घटना को ही हम तीसरा नेत्र, थर्ड आई, शिव _आमतौर से गुरु डरेंगे, जब आप कहेंगे कि अब मैं आंख से | नेत्र या कोई और नाम देते हैं। वह तीसरी आंख खुल जाए, वह देखना चाहता हूं। तब गुरु कहेंगे कि श्रद्धा रखो, भरोसा रखो; दिव्य-चक्षु, तो! उसके बिना परमात्मा के प्रत्यक्ष रूप को नहीं देखा संदेह मत करो। लेकिन ठीक गुरु इसीलिए सारी बात कर रहा है। जा सकता। कि किसी दिन आप हिम्मत जुटाएं और कहें कि अब मैं देखना तब जो भी हम देखते हैं, वह परोक्ष है। जो भी हम देखते हैं, वह चाहता हूं। अब शब्दों से नहीं चलेगा। अब विचार काफी नहीं हैं। अनेक-अनेक परदों के पीछे से देखते हैं। उसे सीधा नहीं देखा जा अब तो प्राण ही उसमें एक न हो जाएं, मेरा ही साक्षात्कार न हो, | | सकता। हमारे पास जो उपकरण हैं, वे ही उसे परोक्ष कर देते हैं। तब तक अब कोई चैन, अब कोई शांति नहीं है। | इन उपकरणों को छोड़कर, इंद्रियों को छोड़कर, आंखों को तो अर्जुन ने कहा, हे कमलनेत्र, हे परमेश्वर, अब मैं आपके छोड़कर, किसी और दिशा से भी देखना हो सकता है। विराट को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं। तो पहला तो दुस्साहस, अंधा होने का। क्योंकि इन आंखों से यह प्रश्न अति दुस्साहस का है। शायद इससे बड़ा कोई ज्योति न हटे, तो तीसरी आंख पर ज्योति नहीं पहुंचती।। दुस्साहस जीवन में नहीं है। क्योंकि विराट को अगर आंख से | | दूसरा दुस्साहस, विराट को देखना बड़ा खतरनाक है। जैसे कि देखना हो, तो बड़े उपद्रव हैं। क्योंकि हमारी आंख तो सीमा को ही | | कोई गहन गड्ड में झांके, तो घबड़ा जाए; हाथ-पैर कंपने लगे; सिर देखने में सक्षम है। हम तो जो भी देखते हैं, वह रूप है, आकार घूम जाए। कभी किसी पहाड़ की चोटी पर किनारे, बहुत किनारे है। हमारी आंख ने निराकार तो कभी देखा नहीं। हमारी आंख की | | जाकर गड्ढ में झांककर देखा है? तो जो भय समा जाए, मृत्यु दिखाई क्षमता भी नहीं है निराकार को देखने की। हमारी आंख बनी ही | पड़ने लगे उस गड्ड में। आकृति को देखने के लिए है। तो विराट को देखने के लिए यह । लेकिन वह गड्ढ तो कुछ भी नहीं है। परमात्मा तो अनंत गड्डा है, आंख काम नहीं करेगी। विराट शून्य है, जहां सब आकार खो जाते हैं, जहां फिर कोई तल सच तो यह है कि इस आंख की तरफ से बिलकुल अंधा हो | और सीमा नहीं है। जहां फिर दृष्टि चलेगी तो रुकेगी नहीं कहीं, जाना पड़ेगा। यह आंख छोड़ देनी पड़ेगी। यह आंख तो बंद ही कर कोई जगह न आएगी, जहां रुक जाए। वहां घबड़ाहट पकड़ेगी। लेनी पड़ेगी। और इस आंख, इन दो आंखों से जो शक्ति बाहर | परम संताप पकड़ लेगा। और लगेगा, मैं मिटा, मैं मरा, मैं गया। प्रवाहित हो रही है, उस शक्ति को किसी और आयाम में प्रवाहित | | विराट के साथ दोस्ती बनाने का मतलब ही खुद को मिटाना है। करना होगा, जहां कि नई आंख उपलब्ध हो सके। तो पहला काम तो अंधा होना पड़े, तब वह आंख खुले। और जिससे मैं देख रहा हूं, इन आंखों के द्वारा...। ध्यान रहे, हम दूसरा काम, मरने की तैयारी दिखानी पड़े, तब उस जीवन से आंख से नहीं देखते; आंख के द्वारा देखते हैं। आंख से कोई नहीं | संस्पर्श हो। देखता। आंख के द्वारा देखते हैं। आंख के पीछे खड़े हैं हम। आंख । इसलिए कीर्कगार्ड ने, एक ईसाई रहस्यवादी संत ने कहा है कि 253]
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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