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________________ गीता दर्शन भाग-5 परमात्मा को खोजना सबसे बड़े खतरे की खोज है - दि मोस्ट डेंजरस थिंग । है भी। सबसे बड़ा जुआ है। अपने जीवन को ही दांव पर लगाने का उपद्रव है। यह ऐसे जैसे बूंद सागर को खोजने जाए, तो मिटने को जा रही है। जहां सागर को पाएगी, वहां मिटेगी; फिर लौटना भी मुश्किल हो जाएगा। सीमा असीमा को खोजती हो; क्षुद्र विराट को खोजता हो; आकार निराकार को खोजता हो; तो मृत्यु की खोज है यह । इसलिए बुद्ध ने ईश्वर नाम ही नहीं दिया उसे । इसलिए बुद्ध ने कहा, वह है महाशून्य; ईश्वर नाम मत दो। क्योंकि ईश्वर नाम देने से हमारे मन में आकृति बन जाती है। हमने ईश्वर की आकृतियां बना ली हैं इसलिए। इसलिए बुद्ध ने कहा, ईश्वर की बात ही मत करो, वह है महाशून्य । इसलिए लोगों ने जब बुद्ध से पूछा कि क्या वहां परम जीवन है? बुद्ध ने कहा, जीवन की बात ही मत करो। वह है परम मृत्यु, वह है निर्वाण, सबका मिट जाना । बुद्ध के पास से भी लोग भाग खड़े होते थे। हमारे इस बड़े आध्यात्मिक मुल्क में भी बुद्ध के पैर न जम सके। और उसका कारण एक ही था। उसका कारण कुल इतना था कि बुद्ध के पास भी जाने में खतरा था। बुद्ध के पास भी वह खाई थी। बुद्ध के पास जाने का मतलब था कि वह परम शून्य...। बुद्ध में झांकना, बुद्ध से दोस्ती बनानी, उस परम शून्य के साथ दोस्ती बनानी थी। और बुद्ध आकृति की बात ही न करते; वे कहते, मिटना, समाप्त होना । सागर को खोजने की बात मत करो। वे कहते थे, बूंद मिटने की तैयारी रखती हो, तो सागर यहीं है। तो कृष्ण से पूछा जा रहा है वह परम खतरनाक सवाल अर्जुन द्वारा, कि मैं तुम्हें अपनी ही आंखों से देखना चाहता हूं, प्रत्यक्ष । यह खतरनाक सवाल है, इसलिए अर्जुन एक शर्त भी रख देता है। वह कहता है, इसलिए हे प्रभो ! मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना शक्य है, ऐसा यदि मानते हों, तो योगेश्वर, आप अपने अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइए। भय तो उसे पकड़ा होगा। वह जो कह रहा हैं, वह खतरनाक है। वह जो देखना चाहता है, वह मनुष्य की आखिरी आकांक्षा है। वह असंभव चाह है, इम्पासिबल डिजायर है। और मनुष्य उसी दिन पूरा मनुष्य हो पाता है, जिस दिन यह असंभव चाह उसे पकड़ लेती है। तब तक हम कीड़े-मकोड़े हैं। तब तक हमारी चाह में और जानवरों की चाह में कोई फर्क नहीं है। हम भी धन इकट्ठा कर रहे हैं, जानवर भी परिग्रह करते हैं। थोड़ा 254 करते हैं हमसे, तो उसका मतलब हुआ, हमसे थोड़े छोटे जानवर हैं। हम थोड़ा ज्यादा करते हैं। वे एक मौसम का करते हैं, तो हम पूरी जिंदगी का करते हैं। तो हमारा जानवरपन थोड़ा विस्तीर्ण है। वे भी कामवासना की तलाश कर रहे हैं - स्त्री पुरुष को खोज रही है, पुरुष स्त्री को खोज रहा है- हम भी वही कर रहे हैं। तो पशु में और हममें फर्क क्या है ? हमारी भी वासना वही है, जो पशु की है। लेकिन एक वासना है, परमात्मा की वासना, जो मनुष्य की ही है। कोई पशु विराट को नहीं खोज रहा है। और जब तक आप विराट को नहीं खोज रहे हैं, तब तक जानना कि पशु की सीमा का आपने अतिक्रमण नहीं किया। मनुष्य विराट की खोज है, असंभव की चाह है। सभी पशु अपने को बचाने की कोशिश में लगे हैं। कोई भी पशु मरना नहीं चाहता, कोई पशु मिटना नहीं चाहता। सिर्फ मनुष्य में कभी-कभी कोई मनुष्य पैदा होते हैं, जो अपने को दांव पर लगाते हैं, अपने को मिटाने की हिम्मत करते हैं, ताकि परम को जान सकें। अकेला मनुष्य है, जो अपने जीवन को भी दांव पर लगाता है। जीवन को दांव पर लगाने का साहस, असंभव की चाह है। विराट को आंखों से देखने की वासना, यह अभीप्सा । अर्जुन को लगा होगा, पता नहीं मेरी योग्यता भी है या नहीं! यह शक्य भी है या नहीं! यह संभव भी है या नहीं ! और मैं भी इस जगह आ गया हूं या नहीं, जहां ऐसा सवाल पूछ सकूं। यह सवाल कहीं मैंने जरूरत से ज्यादा तो नहीं पूछ लिया? यह सवाल कहीं मेरी सीमा का अतिक्रमण तो नहीं कर जाता ? यह सवाल कहीं ऐसा तो नहीं है कि अगर कृष्ण इसे पूरा करें, तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊं ? इसलिए उसने कहा कि वह आपका रूप देखा जाना शक्य हो, संभव हो, योग्यता हो मेरी, पात्रता हो मेरी, ऐसा यदि आप मानते हों ! क्योंकि यहां मेरी मान्यता क्या काम करेगी? जिसे हमने जाना नहीं है, उसके संबंध में हम पात्र भी हैं, यह भी हम कैसे जान सकते हैं? बिना किए पात्रता का कोई पता भी तो नहीं चलता। जो हमने किया ही नहीं है, वह हम कर सकेंगे या न कर सकेंगे, इसे जानने का उपाय, मापदंड भी तो कोई नहीं है। इसलिए शिष्य पूछता है, लेकिन उत्तर मिले ही, इसका आग्रह नहीं करता। और जो शिष्य इसका आग्रह करता है कि उत्तर मिलना ही चाहिए, उसे अभी पता ही नहीं है कि वह बचकानी बात कर रहा है। प्रश्न पूछा जा सकता है, लेकिन उत्तर तो गुरु पर ही छोड़ देना
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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