SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 8 स्वभाव की पहचान 8 और फिर तू नाचता हुआ, तू ही नाचता हुआ अस्पताल पहुंच हम उस आदमी से क्या कहेंगे, कि तुम्हारी समझ में कहीं भूल जा। तू नाच अस्पताल जाकर वैसे ही, जैसे हवा में तरंगें नाचती थीं होगी। अगर तुम्हें पक्का पता है कि दरवाजा कहां है, तो फिर और वृक्षों की पत्तियां नाचती थीं और फूल कंपते थे। इन सबके | दीवाल से टकराने का सवाल कहां है, निकल जाओ। वह कहता कंपन को, जीवित कंपन को लेकर तू ही अस्पताल नाचता हुआ है कि समझता तो पूरा हूं, लेकिन जब भी चलता हूं, तो दीवाल में पहुंच जा। तो शायद तेरा वह उन्मत्त भाव, तेरा वह हर्षोन्माद, तेरी ही सिर लगता है जाकर। वह समाधिस्थ दशा, तेरी प्रेयसी को खबर दे सके, कि जहां से तू इसके समझने में ही बुनियादी भूल है। लेकिन यह मानने को आया है, वहां जाने योग्य है। इतनी खबर हो सकती है। तैयार नहीं कि मैं समझता नहीं हूं। अहंकार तैयार नहीं होता कि मैं कृष्ण के कहने से पता नहीं चलेगा; कृष्ण के होने से पता चलता समझता नहीं हूं। है जरूर। बुद्ध के कहने से पता नहीं चलेगा; होने से पता चलता है। तो मैंने उनसे कहा कि तुम अपनी समझ छोड़कर आओ, तो इसलिए अर्जुन पूछता है कि कैसे मैं अपनी आंखों को खोलूं शायद कुछ हो सके। यह समझ महंगी पड़ रही है। और बीस साल तुम्हारी तरफ? कैसे मेरे कान तुम्हें सुनने में समर्थ हो जाएं? और हो गए समझते हुए, अब और क्या करोगे? और कितना समझोगे? कैसे मेरा हृदय तुम्हारी हृदय की धड़कन को अनुभव करने लगे। अब समझने को भी कुछ नहीं बचा। तुम कहते हो, सब समझ क्या चिंतन करूं? क्या भाव करूं? तुम्हीं मुझे कहो! लिया। अब क्या इरादे हैं? । अर्जुन की सरलता स्पष्ट है। मान्यता को अगर वह मान लेता तो उन मित्र ने कहा, इसीलिए मैं आपके पास आया हूं कि कि जान लिया, तो अब कृष्ण से पूछने को कुछ शेष नहीं था। जाना कृष्णमूर्ति जो कहते हैं, उससे अब कुछ नहीं होता। तो मैंने उनसे उसने नहीं है, यह उसे पता है। और इसे वह छिपा भी नहीं रहा है, कहा, फिर कृष्णमूर्ति को पूरा छोड़कर आ जाओ। फिर जो मैं कहता इसे वह स्पष्ट कह रहा है। इसलिए रास्ता खुल सकता है, रास्ता हूं, वह करो। उन्होंने कहा, मैं तैयार हूं। मैंने उनसे कहा, तो ठीक बन सकता है। . है। कल सुबह से तुम ध्यान शुरू करो। उन्होंने कहा, ध्यान से क्या अभी महीनाभर हुआ, एक मित्र मेरे पास आए। कृष्णमूर्ति को | होगा? कृष्णमूर्ति तो कहते हैं, ध्यान से कुछ भी न होगा! सनते हैं, बीस वर्ष से सनते हैं। तो मुझसे आकर बोले कि सब ठीक ये तकलीफें हैं। ये तकलीफें हैं। जिससे नहीं हुआ है, वह भी लगता है, वे जो कहते हैं। लेकिन कुछ हुआ नहीं। बीस साल हो | सिर पर बैठ जाएगा। उससे कर भी नहीं सकते हैं, उसको छोड़ भी गए सुनते हुए। कान पक गए सुनते हुए। शब्द-शब्द याद हो गए। नहीं सकते हैं। और समझदारी का भूत सवार है कि समझ हमारे जो वे कहते हैं, दोहरा सकता हूं। और बिलकुल ठीक कहते हैं, | पास है। तो मैंने उनसे कहा कि अब मैं क्या करूं? बीस साल से ऐसा भी समझता हूं। लेकिन कुछ होता नहीं! तुम जानते हो कि ध्यान करने से कुछ न होगा। इससे कुछ नहीं तो मैंने उनसे पूछा, एक बार फिर से सोचो। जो वे कहते हैं, वह हुआ। अब थोड़ा ध्यान करके देख लो। समझ गए हो? अगर समझ गए हो, तो हो जाना चाहिए। क्योंकि एक आदमी कहता है कि भक्ति से कुछ भी न होगा। उससे मैं समझना और हो जाने में फासला नहीं है। नहीं, वे बोले, समझता | कहता हूं कि तुम ज्ञान की चर्चा काफी कर लिए। अगर उससे हो तो मैं बिलकुल पूरा हूं। समझने में रत्तीभर कमी नहीं है। लेकिन गया हो, तो बात समाप्त हुई। मुझे कोई एतराज नहीं है। न हुआ हो, होता कुछ नहीं है! तो नाचकर, गीत गाकर भी देख लो। पता नहीं, कहां तुम्हारा हृदय - अब इस आदमी की बड़ी कठिनाई है। इसको वहम है कि | तरंगित हो जाए, कहां तुम्हारा हृदय अंकुरित हो उठे। रुकावट मत समझता हूं। क्योंकि अगर समझ ही ले कोई, तो होने में कुछ बचता | बनो। बाधा मत डालो। मंदिर में भी चले जाओ, मस्जिद में भी चले नहीं, कुछ बचता नहीं। अगर मैं यह कहूं कि मुझे पक्का पता है कि जाओ। कुरान को भी देख लो, गीता को भी देख लो। बाइबिल को दरवाजा कहां है मकान में, लेकिन जब भी मैं निकलता हूं तो दीवाल भी पढ़ लो। गीत भी गा लो, नाचकर भी देख लो, ध्यान करके भी से टकरा जाता हूं। पक्का मुझे पता है कि दरवाजा कहां है। समझता | देख लो। तुम्हें कुछ पता नहीं है कि कहां से हो जाए, तो सब तरफ हूं कि दरवाजा कहां है। लेकिन जब निकलता हूं, तो दीवाल से | टटोलकर देख लो। पता नहीं, कहां द्वार मिल जाए! और जहां द्वार टकरा जाता हूं। बीस साल से समझता हूं कि दरवाजा कहां है! तो मिल जाए, फिर अपनी बुद्धिमत्ता को एक तरफ रखो और द्वार से
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy