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________________ गीता दर्शन भाग-5 ही प्रकाश रह जाता है। संजय इसी तरफ धृतराष्ट्र को कह रहा है कि और हे राजन्... । लेकिन बेचारे धृतराष्ट्र को क्या समझ में आया होगा ! उसे तो दीया भी दिखाई नहीं पड़ता। सूर्य तो सुना है । हजार सूर्य कहने से क्या फर्क पड़ेगा, क्योंकि सूर्य का पता हो तो हजार गुना भी कर धृतराष्ट्र को क्या समझ में आया होगा ! हजार-हजार सूर्य के उत्पन्न होने से जैसा प्रकाश हो, विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश वह भी कदाचित ही हो पाए । लेकिन धृतराष्ट्र समझ गया होगा शब्द, क्योंकि सूर्य शब्द उसने सुना है, प्रकाश शब्द भी उसने सुना है, हजार शब्द भी उसने सुना है। ये सब शब्द उसकी समझ में आ गए होंगे। लेकिन वह बात जो संजय समझाना चाहता था, वह बिलकुल समझ में नहीं आई होगी। यही हम सब की भी दुर्दशा है। सब शब्द समझ में आ जाते हैं, और उनके पीछे जो है, वह समझ के बाहर रह जाता है। शब्दों को लेकर हम चल पड़ते हैं। संगृहीत हो जाते हैं शब्द, और उनके भीतर जो कहा गया था, वह हमारे खयाल में नहीं आता । ईश्वर ! सुन लेते हैं, समझ में आ जाता है। ऐसा लगता है कि समझ गए कि ईश्वर कहा। लेकिन क्या कहा ईश्वर से ? आत्मा ! सुन लिया। कान में पड़ी चोट । पहले भी सुना था । शब्दकोश में अर्थ भी पढ़ा है। समझ गए कि ठीक। आत्मा कह रहे हैं। लेकिन क्या मतलब है? जब मैं कहता हूं घोड़ा, तो एक चित्र बनता है आंख में। जब मैं कहता हूं आत्मा, कुछ भी नहीं होता, सिर्फ शब्द सुनाई पड़ता है। शब्द भ्रांति पैदा कर सकते हैं, क्योंकि शब्द हमारी समझ में आ जाते हैं। इसे ध्यान रखना जरूरी है कि शब्दों की समझ को आप अपनी समझ मत समझ लेना। उनके पार खोज करते रहना। और जो शब्द सिर्फ सुनाई पड़े और भीतर कोई अनुभव पकड़ में न आए, फौरन पूछ लेना कि यह शब्द समझ में तो आता है, लेकिन अनुभव हमारे भीतर इसके बाबत कोई भी नहीं ! अनुभव से कोई हमारा अर्थ नहीं निकलता। तो ही आदमी साधक बन पाता है। और नहीं तो शास्त्रीय होकर समाप्त हो जाता है। शास्त्र सिर पर लद जाते हैं, बोझ भारी हो जाता है। आत्मा वगैरह तो कभी नहीं मिलती, शास्त्र ही इकट्ठे होते चले जाते हैं। और धीरे-धीरे आदमी उन्हीं के नीचे दब जाता है । धृतराष्ट्र ने सुना तो होगा, समझा क्या होगा ! ऐसे आश्चर्यमय रूप को देखते हुए, पांडुपुत्र अर्जुन ने उस काल में अनेक प्रकार से विभक्त हुए, पृथक-पृथक हुए संपूर्ण जगत को श्रीकृष्ण भगवान के शरीर में एक जगह स्थित देखा। यह दूसरी बात। यह प्रकाश के अनुभव के बाद ही घटित होती है। यह सारी श्रृंखला खयाल में रखना - ऐश्वर्य, प्रकाश, एकता । जब तक हमें जगत में पदार्थ दिखाई पड़ रहा है, तब तक हमें अनेकता दिखाई पड़ेगी। एक तरफ मिट्टी का ढेर लगा है, एक तरफ सोने का ढेर लगा है | लाख कोई समझाए कि सोना भी मिट्टी है, और लाख, हम कहें, लेकिन फिर भी भेद दिखाई पड़ता रहेगा। और अगर चुराकर भागने की नौबत आई, तो हम मिट्टी चुराकर भागने वाले नहीं हैं। और | ऐसा सामान्य आदमी की बात नहीं है, जिनको हम समझदार कहें, साधु कहें, महात्मा कहें, वे कहते रहते हैं कि मिट्टी-सोना बराबर है और एक है। एक स्वामी को मैं जानता हूं, वे बड़े संन्यासी हैं। सोने को हाथ नहीं लगाते, और कहते हैं कि सोना-मिट्टी एक है। तो मैं उनके आश्रम में ठहरा हुआ था। तो मैंने कहा, जब एक ही है, तो फिर मिट्टी को भी हाथ लगाना बंद कर दो। और या फिर सोने को भी | लगाते रहो! इतनी फिर चिंता क्या है? बोले, सोने को मैं हाथ नहीं लगा सकता। सोना तो मिट्टी है। उनके खयाल में भी नहीं आ रहा कि वे क्या कह रहे हैं! सोने को मैं हाथ नहीं लगा सकता; सोना मिट्टी है । यह वे अपने को समझा रहे हैं कि सोना मिट्टी है; हाथ नहीं लगा सकते। लेकिन डर क्या है ? मिट्टी से तो कोई भी नहीं डरता; फिर सोने से इतना डर | क्या है? वह डर बता रहा है कि मिट्टी मिट्टी है, सोना सोना है। और सोने को हाथ नहीं लगाते, मिट्टी को तो मजे से लगाते हैं। तो फिर बात एक ही है, कोई सोने को तिजोड़ी में भर रहा है, क्योंकि वह मानता है, सोना सोना है, मिट्टी मिट्टी है। कोई कह रहा है, सोने को हाथ न लगाएंगे। लेकिन दोनों को भेद है। भेद में कोई अंतर नहीं पड़ा है। कोई अंतर नहीं पड़ा है। दृष्टि बदल गई है, उलटा हो गया रुख, लेकिन भेद कायम है। और मिट्टी सोना हो कैसे सकती है आपकी आंख में? कितनी ही नीति समझाएं, और कितना ही धर्म-शास्त्र, सोना मिट्टी हो कैसे सकती है? यह तो तभी हो सकती है, जब सोने का भी परम रूप आपको दिखाई पड़ जाए और मिट्टी का भी परम रूप आपको | दिखाई पड़ जाए। सोना भी प्रकाश है परम रूप में और मिट्टी भी । जब दोनों प्रकाशित हो जाएं, सोना भी खो जाए, मिट्टी भी खो जाए, सिर्फ प्रकाश की किरणें ही रह जाएं, प्रकाश का जाल ही रह जाए; 286
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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