SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गीता दर्शन भाग-500 अर्जुन का कोई भी तप नहीं है। तप की भाषा ही अलग है। | चिंता नहीं है। सोने को, कचरे को, सबको परमात्मा के चरणों में अर्जुन का प्रेम है, तप नहीं है। तप की भाषा अलग है। तप की भाषा | | डाल देना है। सोने को कचरे से अलग नहीं करना है। कचरे सहित है संकल्प की भाषा। एक आदमी कहता है कि मैं पाकर रहूंगा। | सोने को भी परमात्मा के चरणों में डाल देना है। और कह देना है, अपनी सारी ताकत लगा दूंगा। जो भी त्याग करना है, करूंगा। जो | जो तेरी मर्जी। भी खोना है, खोऊंगा। जो भी श्रम करना है, करूंगा। अपनी सारी समर्पण का अर्थ है, अपने को छोड़ देना है किसी के हाथों में। ताकत लगा दूंगा। अब वह जो चाहे। यह छोड़ना ही घटना बन जाती है। यह प्रेम का आपको खयाल है, हिंदुस्तान में दो संस्कृतियां हैं। एक तो है | मार्ग है। आप तभी छोड़ सकते हैं, जब प्रेम हो। संकल्प में प्रेम की आर्य संस्कृति और दूसरी है श्रमण संस्कृति। श्रमण संस्कृति में जैन | कोई जरूरत नहीं है; समर्पण में प्रेम की जरूरत है। और बौद्ध हैं। आर्य संस्कृति में बाकी शेष लोग हैं। अर्जुन का प्रेम है कृष्ण से गहन, वही उसकी पात्रता है। वहां प्रेम कभी आपने समझा इस श्रमण शब्द का क्या अर्थ होता है? | ही पात्रता है। उसका प्रेम अतिशय है। उस प्रेम में वह इस सीमा श्रमण का अर्थ है, श्रम करके ही पाएंगे। चेष्टा से मिलेगा| तक तैयार है कि अपने को सब भांति छोड़ सका है। परमात्मा-तप से, साधना से, योग से। मुफ्त नहीं लेंगे। प्रार्थना क्या घटना घटती है जब कोई अपने को छोड़ देता है? हमारी नहीं करेंगे, प्रेम में नहीं पाएंगे; अपना श्रम करेंगे और पा लेंगे। एक | | जिंदगी का कष्ट क्या है? कि हम अपने को पकड़े हुए हैं, हम अपने सौदा है, जिसमें अपने को दांव पर लगा देंगे। जो भी जरूरी होगा; को सम्हाले हुए हैं। यही हमारे ऊपर तनाव है, यही हमारे मन का करेंगे। भीख नहीं मांगेंगे, भिक्षा नहीं लेंगे, कोई अनुग्रह नहीं | | खिंचाव है कि मैं अपने को सम्हाले हुए हूं, पकड़े हुए हूं। स्वीकार करेंगे। आपको पता है, चिकित्सक कहते हैं कि अगर कोई आदमी तो महावीर परम श्रमण हैं। वे सब दांव पर लगा देते हैं और । | बीमार हो और उसे नींद न आए, तो फिर बीमारी ठीक नहीं हो पाती। घोर संघर्ष, घोर तपश्चर्या करते हैं। महातपस्वी कहा है उन्हें लोगों | | कोई भी बीमारी हो, बीमारी के ठीक होने के लिए नींद आना जरूरी ने। बारह वर्ष तक, बारह वर्ष तक निरंतर खड़े रहते हैं धूप में, | | है। क्यों? दवा से ठीक करें। लेकिन चिकित्सक पहले नींद की छांव में, वर्षा में, सर्दी में। बारह वर्ष में कहते हैं कि सिर्फ तीन सौ | | फिक्र करेगा। नींद की दवा देगा, कि पहले नींद आ जाए। क्यों? साठ दिन उन्होंने भोजन किया। मतलब ग्यारह वर्ष भूखे, बारह ___ क्योंकि आप बीमार हैं, और जब तक आप जग रहे हैं, आप वर्ष में। कभी एक दिन भोजन किया, फिर महीनेभर भोजन नहीं | | बीमारी को जोर से पकड़े रहते हैं, उसको छोड़ते नहीं हैं। कांशस, किया, फिर दो महीने भोजन नहीं किया। सब तरह अपने को | | सचेतन जकड़ बनी रहती है बीमारी की आपकी छाती के ऊपर, मन तपाया और तप कर पाया। के ऊपर-मैं बीमार हूं, मैं बीमार हूं! नींद में गिरते ही सब आपके यह समर्पण के विपरीत मार्ग है, संकल्प का। इसमें अहंकार को | | हाथ से छूट जाता है। और जैसे ही छूटता है, वैसे ही प्रकृति काम तपाना है। और इसमें अहंकार को पूरी तरह दांव पर लगाना है। | शुरू कर देती है। सुबह तक आप बेहतर हालत में उठते हैं। इसमें अहंकार को पहले ही छोड़ना नहीं है। अहंकार को शुद्ध करना रोज सांझ आप थके सोते हैं। क्यों थकते हैं आप? थकते हैं है। और शुद्ध करने की प्रक्रिया का नाम तप है। अहंकार को शुद्ध | इसलिए कि आपको लग रहा है कि मैं कर रहा हूं। मैं कर रहा हूं, करने की प्रक्रिया का नाम तप है। तो थक जाते हैं। रात नींद में खो जाते हैं, सुबह ताजे हो जाते हैं। जैसे सोने को हम आग में डाल देते हैं। तप जाता है। जो भी क्योंकि कम से कम रात आपको कुछ नहीं करना पड़ा। छोड़ दिया, कचरा होता है, जल जाता है। फिर निखालिस सोना बचता है। जो हुआ। नींद में आप गिर जाते हैं उस स्रोत में, जहां आपके श्रम महावीर कहते हैं कि जब निखालिस अस्मिता बचती है तपने के | की कोई भी जरूरत नहीं है। बाद, सिर्फ मैं का भाव बचता है, शुद्ध मैं का भाव, तपते-तपते- | प्रेम जागते हुए नींद में गिर जाना है। थोड़ा कठिन लगेगा तपते, तब आत्मा परमात्मा हो जाती है। वह शुद्धतम अहंकार ही समझना। प्रेम का मतलब है, होशपूर्वक, जागते हुए किसी में गिर आत्मा है। यह एक मार्ग है, इसमें सोने को तपाना जरूरी है। जाना और छोड़ देना अपने को कि अब मैं नहीं हूं, तू है। प्रेम एक एक दूसरा मार्ग है, जो समर्पण का है, जिसमें तपाने वगैरह की तरह की नींद है जाग्रत। इसलिए प्रेम समाधि बन जाती है। कोई
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy