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________________ 3 आभिजात्य का फूल और हालत यह है-यह सोचने जैसी है—कि दुखी लोग तो मैं ऐसे साधुओं को जानता हूं, जिनके सामने आप पैसा रखें, हमेशा मुखर होते हैं। पीड़ित और परेशान लोग बहुत बकवासी होते तो वे आंख बंद कर लेंगे। मैं ऐसे साधुओं को जानता हूं, जो पैसा हैं। वे काफी बोलने वाले लोग होते हैं। वे अपने दुख को मुखर कर नहीं छुएंगे। देते हैं, और वे दुख के आस-पास दर्शनशास्त्र खड़े कर लेते हैं। एक संन्यासी मुझे मिलने आए थे। उस दिन मुझे समय न था, और जो हंसता है, उसे वे कंडेम, उसे वे निंदा कर सकते हैं। तो मैंने कहा, कल सुबह आप मिलने आ जाएं। उन्होंने कहा, बड़ी अगर हम दुनिया के धर्मों का इतिहास देखें, तो बड़ी दुर्घटना | | मुश्किल है। उनके साथ एक सज्जन और थे। उन्होंने कहा कि अगर मालूम पड़ती है। महावीर बहुत प्रसन्न आदमी मालूम पड़ते हैं। उनके | | ये कल सुबह आने को राजी हों, तो मैं आ जाऊं। तो मेरी कुछ रोएं-रोएं से प्रसन्नता की झलक है। उनके रोएं-रोएं से जो हवा उठती | | समझ में न पड़ा। मैंने कहा, इनकी क्या जरूरत है? आप अकेले है, वह एक गहरे आनंद की है। लेकिन उनके आस-पास धीरे-धीरे | आ जाएं! उन्होंने कहा, बात ऐसी है कि पैसा मैं खुद नहीं रखता। जो वर्ग इकट्ठा होता है, वह बिलकुल ही रुग्ण है। तो टैक्सी वगैरह को देने-लेने के लिए इनको, ये रखते हैं पैसा। कृष्ण तो बांसुरी बजाते हुए मालूम पड़ते हैं। नाचते हुए मालूम ___ बड़े मजे की बात है। एक ही पाप को करने के लिए दो आदमियों पड़ते हैं। जिंदगी से उन्हें प्रेम है। जिंदगी एक उत्सव है। और जिंदगी | की जरूरत पड़ रही है! पैसा दूसरा आदमी रखता है। वह साथ आए, अपने आप में एक आनंदपूर्ण खेल है। लेकिन बांसुरी बजाने वाले | | तो वे आ सकते हैं, क्योंकि देने वगैरह के लिए! वे पैसा नहीं छूते! आदमी के आस-पास भी ऐसे लोग इकट्ठे होने लगते हैं, जो उदास ___ कुछ पागल हैं जो पैसा ही छूते हैं, और किसी चीज को छूने में हैं, रुग्ण हैं, जिंदगी से थके हैं, परेशान हैं। धीरे-धीरे ये लोग सख्ती | उन्हें कुछ रस ही नहीं आता! एक पागल ये दूसरे हैं; शीर्षासन किया से संगठन निर्मित कर लेते हैं। और सारे धर्म पैदा होते हैं आनंद से, | हुआ पागल हैं। वे उलटा कहते हैं, हम छू नहीं सकते पैसा। लेकिन और सारे धर्म दुखी लोगों के हाथ में पड़ जाते हैं। गंभीर दोनों हैं। पैसे के बाबत दोनों गंभीर हैं, सीरियस हैं। पैसा बड़ी धर्म जब भी पैदा होता है, तो किसी विराट आनंद से पैदा होता | कीमती चीज दोनों को मालूम पड़ती है। दोनों को! एक को लगता है; और जब भी धर्म संगठित होता है, तो गलत लोग उसे संगठित | | है, पैसा मोक्ष है; एक को लगता है, पैसा नर्क है। लेकिन पैसा कर लेते हैं। असल में आनंदित आदमी तो संगठित होना भी नहीं | सिर्फ पैसा है, ऐसा दोनों को नहीं लगता। चाहता। आनंदित आदमी तो अकेला भी काफी होता है। लेकिन | नारद इस जिंदगी में इन दोनों तरह के आदमियों से अलग दुखी आदमी समूह इकट्ठे करने लगते हैं। उदास आदमी समूह | | आदमी हैं। दोनों से अलग आदमी हैं। जिंदगी कोई गंभीर बात नहीं इकट्ठे करने लगते हैं। | है। जैसे कोई रामलीला के मंच पर राम बन गया हो, और रावण कृष्ण का यह वक्तव्य बहुत विचारने जैसा है कि वे कहते हैं कि बन गया हो। मैं देवर्षियों में नारद है। तो रावण भी कोई रामलीला के मंच पर ऐसा नहीं समझता कि जिंदगी एक नाटक है। और वही है ऋषि, जो जिंदगी की पूरी मैं कोई पाप कर रहा हूं। पाप एक ही है कि अगर वह खेल ठीक नाटकीयता को समझ ले। जीवन एक खेल है, एक लीला है। उसे | से न खेल पाए; अगर अभिनय ठीक से न कर पाए, तो एक ही जो गंभीरता से लेता है, वह बीमार है। जिंदगी को जो हल्केपन से | | पाप है। रावण होने में कोई पाप नहीं है। और न राम ही यह समझते ले ले, खेल से ज्यादा मूल्य का न माने...। हैं कि हम कोई बड़ा भारी पुण्य कर रहे हैं। एक ही पुण्य है कि इसे हम ऐसा समझें तो आसान हो जाए। एक आदमी धन इकट्ठा | | अभिनय कुशलता से हो जाए। मंच के बाहर उतरकर बात समाप्त करता है, बड़ी गंभीरता से। एक-एक पाई-पाई जोड़ता है। वहीं हो जाती है। इस झगड़े को घर तक ले जाने की कोई जरूरत भी नहीं जिंदगी लगी है उसकी। सभी कुछ यही है। अगर वह एक ढेर लगा पड़ती। मंच के पीछे भी ले जाने की कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी लेगा धन का, तो उपलब्धि हो जाएगी जीवन की। बड़ी गंभीरता से | को लेकिन हम गंभीरता से ले लेते हैं। धन इकट्ठा करता है। फिर पाता है कि सब व्यर्थ हो गया। जिंदगी तो जिंदगी को जो अभिनय की तरह ले पाए, उसने गहनतम सत्य हाथ से चली गई, ढेर रह गया मिट्टी का। तब वह इतनी ही गंभीरता को जान लिया। फिर अतियों में चुनाव नहीं होता; फिर आदमी मध्य से इसका त्याग भी करता है। तब वह इसे छोड़कर भागता है। । में चल सकता है। फिर उसे एक पागलपन छोड़कर दूसरे पागलपन | 151
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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