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मांग और प्रार्थना ... 409
बच्चे की भांति सरल और ज्ञानशून्य मनुष्य क्या परमात्मा को पा सकता है? / जीसस का प्रसिद्ध वचन–मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश का अधिकारी-जो बच्चे की भांति सरल है / बच्चे की सरलता झूठी है / संत की सरलता अर्जित है / सारी जटिलताएं बच्चे के भीतर अप्रकट पड़ी हैं / मां और बेटी के बीच ईर्ष्या / बाप और बेटे के बीच ईर्ष्या / बचपना सुखद था-बूढ़े की भ्रामक सांत्वना / बच्चे की पीड़ा-परतंत्रता की, असहाय होने की / दुखद स्मृतियों को मन भूल जाता है / बच्चा क्षण-क्षण जीता है, क्योंकि अभी मन विकसित नहीं हुआ है / बच्चे के भीतर सब रोग छिपे हैं / संत के सब रोग गिर गए / चित्त पर अतीत का बोझ / अतीत का बोझ ही बुढ़ापा है / अनुभव और पीड़ाओं से गुजरना जरूरी / दुबारा जन्म-द्विज होने की क्रांति / मन खाली और निर्मल दर्पण रह जाए / क्या आत्मा की तौल हो सकती है? / स्वीडन के डाक्टर जैक्सन का प्रयोग / ईजिप्त के सम्राट फैरोह का प्रयोग-मरते हुए व्यक्ति को कांच की पेटी में बंद करना / डाक्टर जैक्सन ने मरने के बाद मृत शरीर में इक्कीस ग्राम की कमी पाई / यह कमी आत्मा की नहीं निकल गई प्राणवायु की थी / आत्मा अमाप्य है-भाररहित है / प्राणवायु के जलने से शरीर में गर्मी / विज्ञान की सारी व्यवस्था पदार्थ को पकड़ सकती है-आत्मा को नहीं / विज्ञान है पदार्थ के साथ प्रयोग / धर्म है चेतना के साथ प्रयोग / धर्म और विज्ञान में क्या फर्क है? / धर्म है आंतरिक अनुभव-विज्ञान है बाह्य प्रयोग / धर्म है वैयक्तिक-विज्ञान है सामूहिक / धर्म और विज्ञान के आयाम बिलकुल अलग हैं / अर्जुन की पात्रता क्या है? / अर्जुन का प्रेम है--कोई तप नहीं है / जैन व बौद्धों की श्रमण संस्कृति / श्रमण संस्कृति अर्थात परमात्मा मिलेगा-तप से, साधना से, योग से / ब्राह्मण संस्कृति अर्थात समर्पण, प्रार्थना, प्रेम / महावीर परम श्रमण हैं / तप है अहंकार को शुद्ध करने की प्रक्रिया / सोने को आग में तपाना / समर्पण के मार्ग पर जो है, जैसा है-सब कुछ परमात्मा को अर्पित कर देना है / अर्जुन का अतिशय प्रेम ही उसकी पात्रता है / जिंदगी की सारी पीड़ा है-अहंकार को पकड़ने और सम्हालने के प्रयास में / नींद में विश्राम-अहंकार का शिथिल हो जाना / प्रेम है-जागते हुए नींद में गिर जाना / छोड़ने की कला/ ध्यान सरल है-प्रेम दुर्लभ / अनिद्रा का रोग–बुद्धि-केंद्रित जीवन का परिणाम / नींद लाने की कोशिश बाधा है / कुए का विपरीत परिणाम का नियम / नियति की धारणा से विश्राम फलित / अर्जुन का मार्ग है प्रेम / संकल्प के मार्ग पर ईश्वर की धारणा जरूरी नहीं है / अर्जुन अपने को छोड़ सका पूरा का पूरा / हमारी बेईमानी-न श्रम, न समर्पण / तैरने की कला-अपने को ढीला छोड़ देना / आप कहते हैं कि प्रार्थना में कुछ मांगो मत / तो क्या प्रार्थना में कुछ मांगा जाए, वह पूरा नहीं होगा? / मांग पूरी हो जाएगी, लेकिन प्रार्थना बेकार हो जाएगी / बहुत सस्ते में प्रार्थना बेच दी / वासनापूर्ण प्रार्थना में मन की शक्ति से ही फल की प्राप्ति / प्रार्थना है-वासनाशून्य क्षण में विराट से मिलन / मन की शक्तियां / विधायक तरंगों का निर्माण / प्रार्थना मांग नहीं स्वयं को प्रभु-अर्पित करना है / कृष्ण का साकार-सगुण रूप में वापस लौट आना / विराट और व्यक्ति का संबंध-मां-बेटे जैसा / गर्भ के भीतर और गर्भ के बाहर बेटा मां से सूक्ष्म रूप से जुड़ा हुआ है / प्रेमविहीन मां केवल यांत्रिक जननी होगी / रूस में वैज्ञानिक प्रयोगः खरगोश के बच्चे को सताना-मारना-हजारों मील दूर बैठी मां को पीड़ा होना / अस्तित्व हृदयपूर्ण है / अस्तित्व हार्दिक प्रत्युत्तर देता है / कबीर ने कहा है : ऐ मौलवी, अजान में जोर से क्यों चिल्लाता है। क्या तेरा खुदा बहरा हो गया है? / मौलवी का भाव है कि खुदा तो बहरा नहीं, लेकिन मैं बहुत कमजोर हूं / हम जो भी हैं-अपनी ही इच्छाओं के परिणाम हैं / हमारी मांगें बड़ी विरोधाभासी होती हैं / पति शक्तिशाली और आज्ञाकारी एक साथ नहीं होगा / बहुत सुंदर पत्नी का पतिव्रता होना मुश्किल है / अस्तित्व सब वासनाएं पूरी कर देता है-यही आदमी की मुसीबत है / समर्पण अर्थात तू जो ठीक समझे, वह करना / फिर कोई कष्ट नहीं है / सूली पर लटके जीसस की शिकायत—यह तू क्या दिखा रहा है! / तत्क्षण जीसस को होश आया; कहा-तेरी मर्जी पूरी हो / एक क्षण में मरियम का बेटा जीसस, ईश्वर का बेटा क्राइस्ट हो गया / कृष्ण ने सौम्यमूर्ति होकर अर्जुन को धीरज दिया / एक प्राचीन यहूदी कथन-ईश्वर एक भूकंप है / मनुष्य के मनोनुकूल परमात्मा का रूप-महात्मा / कृष्ण को हमने पूर्णावतार कहा / राम को अंशावतार कहा / राम से हमारा तालमेल बैठता है / अर्जुन ने कहा, हे जनार्दन, आपके शांत मनुष्यरूप को देखकर मैं शांत-चित्त हुआ अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया हूं / मनुष्य का सशर्त होना / तुलसीदास का कृष्ण की मूर्ति के सामने झुकने से इनकार / भक्त और साधक का फर्क / साधक अपने को बदलता है, निखारता है | भक्त कहता है, तुम ही मुझे बदलो-कृपा करो / साधक अपनी सब धारणाएं गिरा देता है / भक्त अपने अनुकूल ईश्वर को पुकारता है और फिर उसकी मर्जी पर अपने को छोड़ देता है / जैसा भी हं, अपने को छोड़ता हूं / तू ही बदल लेना / संकल्प का मार्ग, समर्पण का मार्ग-स्पष्ट बोध जरूरी।