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ॐ गीता दर्शन भाग-500
आपको अब जैसा देख रहा हूं और अब तक जैसा आपको | | है। और मित्रता में बहुत समय ऐसे वचन भी कहे हैं, जो शत्रु से देखा, इन दोनों के बीच जमीन-आसमान का भेद पड़ गया है। तो भी नहीं कहने चाहिए। उन सबकी मैं क्षमा चाहता है। जो व्यवहार मैंने आपसे किए थे अनजान में, न जानते हुए आपको, | | हे विश्वेश्वर! आप इस चराचर जगत के पिता और गुरु से भी न पहचानते हुए आपको, उन सबके लिए मुझे माफ कर देना। । | बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं। हे अतिशय प्रभाव वाले, तीनों लोकों
इस जगत से भी हम माफी मांगेंगे, क्योंकि जगत परमात्मा है। | में आपके समान दूसरा कोई भी नहीं है। अधिक तो कैसे होवे? और हम जो व्यवहार उससे कर रहे हैं, वह परमात्मा के साथ किया | | इससे हे प्रभो, मैं शरीर को अच्छी प्रकार चरणों में रखकर और गया व्यवहार नहीं है। अगर मानकर भी चलें आप-अभी आपको प्रणाम करके स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लि पता भी नहीं है, सिर्फ मानकर चलें कि यह जगत परमात्मा है और | प्रार्थना करता हूं। हे देव, पिता जैसे पुत्र के और सखा जैसे सखा चौबीस घंटे के लिए प्रत्येक व्यक्ति से ऐसा व्यवहार करने लगें, जैसे के और पति जैसे प्रिय स्त्री के, वैसे ही आप भी मेरे अपराध को वह परमात्मा है, तो आप पाएंगे कि आप बदलने शुरू हो गए, आप सहन करने के लिए योग्य हैं। दूसरे आदमी हो गए। आपके भीतर गुणधर्म बदल जाएगा। मैं जानता हूं कि आप क्षमा कर देंगे। और मैं जानता हूं कि आप .
सूफियों की एक परंपरा है, एक साधना की विधि है, कि जो भी | बुरा न लेंगे, अतीत में जो हुआ है। मैं जानता हूं कि आप दिखाई पड़े, उसे परमात्मा मानकर ही चलना। अनुभव न हो, तो | महाक्षमावान हैं और जैसे प्रियजन को कोई क्षमा कर दे, आप मुझे भी। कल्पना करनी पड़े, तो भी। क्योंकि वह कल्पना एक न एक कर देंगे। फिर भी मैं क्षमा मांगता हूं। शरीर को ठीक से चरणों में दिन सत्य सिद्ध होगी। और जिस दिन सत्य सिद्ध होगी, उस दिन
रखकर...। किसी से क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी।
इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। मंसूर ने कहा है कि अगर परमात्मा भी मुझे मिल जाए, तो मुझे हमें खयाल में नहीं है कि शरीर की प्रत्येक अवस्था मन की क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी। क्योंकि मैंने उसके सिवाय किसी में और अवस्था से जुड़ी है। शरीर और मन ऐसी दो चीजें नहीं हैं। इसलिए कुछ देखा ही नहीं है।
आज तो विज्ञान बाडी एंड माइंड, शरीर और मन, ऐसा न कहकर, अर्जुन को मांगनी पड़ रही है, क्योंकि अब तक उसने परमात्मा | साइकोसोमेटिक, मनोशरीर या शरीरमन, ऐसा एक ही शब्द को में भी कृष्ण को देखा है, एक मित्र को देखा है, एक सखा को देखा प्रयोग करने लगा है। और ठीक है, क्योंकि शरीर और मन एक है। फिर मित्र के साथ जो संबंध है...।
| साथ हैं। और प्रत्येक में कुछ भी घटित हो, दूसरे में प्रभावित होता ध्यान रहे, मित्रता कितनी ही गहरी हो, उसमें शत्रुता मौजूद रहती | है। जैसे कभी सोचें...। है। और मित्रता चाहे कितनी ही निकट की हो, उसमें एक दूरी तो पश्चिम में दो विचारक हुए हैं, लेंगे और विलियम जेम्स। उन्होंने रहती ही है।
एक सिद्धांत विकसित किया था, जेम्स-लेंगे सिद्धांत। वह उलटी मन का जो द्वंद्व है, वह सब पहलुओं पर प्रवेश करता है। आप बात कहता है सिद्धांत, लेकिन बड़ी महत्वपूर्ण। आमतौर से हम किसी को शत्रु नहीं बना सकते सीधा। शत्रु बनाना हो, तो पहले | | समझते हैं कि आदमी भयभीत होता है, इसलिए भागता है। मित्र बनाना जरूरी है। या कि आप किसी को सीधा शत्रु बना सकते जेम्स-लेंगे कहते हैं, भागता है, इसलिए भयभीत होता है। आमतौर हैं? सीधा शत्रु बनाने का कोई उपाय नहीं है। शत्रुता भी आती है, | से हम समझते हैं, आदमी प्रसन्न होता है, इसलिए हंसता है। तो मित्रता के द्वार से ही आती है। असल में शत्रुता मित्रता में ही | जेम्स-लेंगे कहते हैं, हंसता है, इसलिए प्रसन्न होता है। और उनका छिपी रहती है।
कहना है कि अगर यह बात ठीक नहीं है, तो आप बिना हंसे प्रसन्न इसलिए बुद्धिमानों ने कहा है कि जिनको शत्रु न बनाने हों, उनको | | होकर बता दीजिए! या बिना भागे भयभीत होकर बता दीजिए! मित्र बनाने से बचना चाहिए। अगर आप मित्र बनाएंगे, तो शत्रु भी । ___ उनकी बात भी सच है; आधी सच है। आधी आम आदमी की बनेंगे ही। क्योंकि मित्र और शत्रु कोई दो चीजें नहीं हैं। शायद एक बात भी सच है। ही घटना के दो छोर हैं; दो सघनताएं हैं एक ही तरंग की। असल में भय और भागना दो चीजें नहीं हैं। भय मन है और
तो अर्जुन यह कह रहा है कि मित्रता में बहुत बार शत्रुता भी की | भागना शरीर है। प्रसन्नता और हंसी दो चीजें नहीं हैं। प्रसन्नता मन
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