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________________ स्वभाव की पहचान नहीं लिया, वरन वैराग्य और शुद्धतम तर्कणा से जो जीए हैं, उन्होंने निर्गुण, निराकार। क्योंकि जो भी विचार की आत्यंतिकता को पकड़ेगा, तो निर्विकार और निराकार और शून्य अंततः उसको दिखाई पड़ना शुरू होगा। इन दोनों की व्याख्याएं हम देखें, तो कलहपूर्ण मालूम पड़ती हैं। भक्त गुणों की चर्चा कर रहा है। और ज्ञानी कह रहा है कि निर्गुण है परमात्मा। भक्त मूर्ति बना रहा है। और ज्ञानी कह रहा है, मूर्ति ! मूर्ति है। भक्त आकार दे रहा है। और ज्ञानी कह रहा है, तोड़ो आकार। आकार से कैसे पहुंचोगे निराकार तक ? भक्त जिसे प्रेम कर रहा है, उसे सजा रहा है वस्त्रों में, गहनों में, फूलों में। वह प्रेमी का निवेदन है। वह प्रेम की भाषा है। ज्ञानी बेचैन हुआ जा रहा है कि यह क्या पागलपन कर रहे हो ? यह क्या बच्चों जैसी बात? प्रेम का यहां सवाल क्या है? सत्य को खोजो । सत्य को खोजना हो, तो प्रेम को हटाओ, क्योंकि प्रेम पक्षपात बन सकता है । और प्रेम वह देख सकता है, जो न हो। और प्रेम वह मान सकता है, जो अपने ही भीतर है, प्रोजेक्टेड हो। इसलिए छोड़ो प्रेम को, शुद्ध ज्ञान को पकड़ो। इसलिए एक तरफ ईश्वर को कहने वाले लोग हैं कि वह है, लेकिन निराकार है । इस्लाम ने इतने जोर से इस परिभाषा को पकड़ लिया कि मूर्ति को तोड़ना धार्मिक काम हो गया! तोड़ दो मूर्ति को, क्योंकि मूर्ति बाधा बन रही होगी। उसकी कोई मूर्ति नहीं है। इस्लाम जिस समय में पैदा हुआ और मक्का, जो इस्लाम का तीर्थ बना, वहां इस्लाम के पहले, मोहम्मद के पहले, तीन सौ पैंसठ मूर्तियों का मंदिर था। हर दिन की एक मूर्ति थी। हर दिन के लिए परमात्मा का एक रूप था। तीन सौ पैंसठ मूर्तियों का मंदिर अपने तरह का अदभुत मंदिर था । और जिन्होंने तीन सौ पैंसठ मूर्तियां खोजी होंगी, उनका भी बड़ा गहरा भाव था । भाव यह था कि परमात्मा के इतने रूप हैं कि रोज भी हम एक को पूजें, तो भी वे चुकते नहीं। लेकिन रूप हैं। भक्त अरूप की तरफ तो खयाल ही नहीं ले जा सकता। भक्त को तो पीड़ा होने लगेगी। भक्तों ने तो यहां तक प्रार्थना की है भगवान से कि न चाहिए हमें तेरा मोक्ष, न तेरा बैकुंठ, न तेरा निर्वाण । बस, तेरा रूप हमारी आंखों में बसा रहे। तो उन्होंने तीन सौ पैंसठ मूर्तियां बनाई थीं। लेकिन इस्लाम की दूसरी व्याख्या थी । और दोनों व्याख्याएं अपनी जगह सही हैं। यही मजा है। इस्लाम की व्याख्या थी कि मूर्ति से उसका क्या संबंध है? वह अरूप है। वह एक है। किसी भी रूप में उसको बांधो मत, नहीं तो रूप से रुक जाओगे और अरूप तक कैसे पहुंचोगे? इसलिए तोड़ दो सब रूप। वे तीन सौ पैंसठ मूर्तियां तोड़ दी गईं। मोहम्मद का कोई भी चित्र उपलब्ध नहीं है। इसीलिए उपलब्ध नहीं है मोहम्मद का कोई चित्र कि मोहम्मद का चित्र भी कहीं साधक के मार्ग में बाधा न बन जाए। कहीं ऐसा न हो कि मोहम्मद भी आड़ बन जाएं। इसलिए मोहम्मद ने कोई अपना चित्र नहीं बचने दिया । यह ज्ञानी की एक व्याख्या है। बिलकुल सही है। लेकिन प्रेमी की जो बिलकुल विपरीत व्याख्या है, वह भी इतनी ही सही है। | हजार और व्याख्याएं हैं। व्याख्याएं निर्भर करती हैं करने वाले पर। और करीब-करीब हमारी हालत ऐसी है कि मैंने सुना है, एक गांव में पहली दफा हाथी आया। सांझ हो गई थी, लेकिन गांव में बड़ी उत्सुकता फैल गई, तो गांव ने अपने पांच प्रमुख आदमी चुने, जो गांव के सबसे बड़े जानकार थे और उनको भेजा कि हाथी को जाकर देखकर आएं। 87 सांझ हो गई। रात हो गई। अंधेरा हो गया। वे पांचों जब पहुंचे, तो अंधेरा हो गया था। उन्होंने हाथी को टटोलकर देखा । जिसके हाथ में पैर पकड़ में आया, उसने कहा कि ठीक। व्याख्या मिल गई। जिसके हाथ में कान पकड़ में आया, उसने कहा कि ठीक। व्याख्या मिल गई! जिसने पीठ पर हाथ फेरा, उसने कहा कि ठीक। व्याख्या मिल गई! उन पांचों को व्याख्याएं मिल गईं। और जब वे पांचों गांव में पहुंचे, तो गांव में बड़ा उपद्रव मच गया। क्योंकि गांव में पांच वक्तव्य हो गए हाथी के संबंध में। और वक्तव्य इतने बेमेल थे कि कोई कितनी ही कल्पना की चेष्टा करे, तो भी उनको जोड़ नहीं | सकता था। क्योंकि एक कह रहा था कि हाथी होता है, जैसे महलों संगमरमर के खंभे होते हैं, ठीक वैसा । उसने पैर छुए थे । एक कह रहा था, जैसे किसान अपने बड़े-बड़े सूपों में अपने धान को साफ करते हैं, वैसा है हाथी; उसने हाथी के कान छुए थे। वे अलग-अलग व्याख्याएं लेकर आए थे। और गांव बड़ी मुश्किल में पड़ गया। और गांव के लोगों ने कहा कि दो ही बातें हो सकती हैं। या तो तुम पांचों पागल हो गए हो, और या फिर तुम पांच चीजों को देखकर लौटे हो, एक चीज को देखकर नहीं । पर | उन्होंने कहा, हम एक ही चीज को देखकर लौटे हैं। हम पांचों एक ही चीज को देखकर लौटे हैं।
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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