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गीता दर्शन भाग-5
तो फिर गांव के लोगों ने कहा कि फिर तुम पांचों पागल हो गए हो। क्योंकि तुम पांचों सही नहीं हो सकते। तुम कैसी बातें कर रहे हो ? कहां महल का खंभा और कहां किसान का सूप ! क्या संबंध है? खंभा सूप हो सकता है? सूप खंभा हो सकता है? कोई संबंध नहीं है। तब उन्होंने कहा कि फिर हम रुकें।
लेकिन रुकना भी बड़ा मुश्किल था। रातभर गांव में बेचैनी रही। और भी अनेक लोग गए पीछे और टटोलकर लौटे। और गांव में पंथ हो गए। कुछ लोगों ने कहा कि ठीक है, जिसने खबर दी है कि हाथी खंभे की तरह है। गांव में पांच पंथ हो गए ! और जल्दबाजी इतनी थी कि सुबह की प्रतीक्षा भी कैसे की जाए !
लेकिन सुबह जब लोगों ने हाथी देखा, तो सारे लोग अपने पर हंसने लगे कि पागल कोई और नहीं था, हम सब पागल थे। और गलती किसी की नहीं थी। गलती इतनी ही थी कि अंश को पूर्ण समझ लिया था। और विपरीत अंश भी हो सकता है पूर्ण में एक, इसकी कोई कल्पना न थी। सुबह जब लोगों ने हाथी को देखा और खंभे और सूपों को एक साथ देखा । और खंभे और सूपों के भीतर जो प्राण था, वह एक ही था ।
लेकिन हाथी के संबंध में तो उस गांव की तकलीफ हल हो गई, ईश्वर के संबंध में आदमी के गांव की तकलीफ शायद ही कभी हल हो। क्योंकि ऐसी सुबह कभी नहीं होने वाली है, जब हम सब एक साथ ईश्वर को देख लें। यह सुबह वैयक्तिक है; एक-एक आदमी की होती है; और एक- एक आदमी अपनी परिभाषा लेकर आता है।
जितने आदमी ईश्वर की तरफ गए हैं, उतनी परिभाषाएं हैं। यह दूसरी बात है कि कुछ लोग परिभाषा करने में मुखर हैं, कुशल हैं, इसलिए वे परिभाषा कर पाए। कुछ लोग मुखर नहीं हैं, कुशल नहीं हैं, नहीं कर पाए। इसलिए उन्होंने दूसरों की अपने से मिलती-जुलती परिभाषा स्वीकार कर ली। लेकिन करीब-करीब जितने लोग ... ।
अगर हम बुद्ध से पूछें, तो महावीर से कोई मेल नहीं पड़ता। अगर हम कृष्ण से पूछें, तो मोहम्मद से कोई मेल नहीं पड़ता। अगर हम मोहम्मद से पूछें, तो राम से कोई मेल नहीं पड़ता। और जितने लोग ऊपर से मेल बिठालने की कोशिश करते हैं, उससे भी कुछ मेल पड़ता नहीं। कितने लोग समझाते हैं कि गीता में भी वही, कुरान में भी वही, बाइबिल में भी वही । निकाल निकालकर एक-दूसरे के सूत्रों का तालमेल भी बिठालने की कोशिश करते हैं
कि यह अर्थ, यह अर्थ | फिर भी तालमेल बैठता नहीं ।
नहीं बैठने का कारण है। कोई कितना ही तालमेल बिठाए, जिसने समझा है कि हाथी सूप है, और जिसने समझा है कि हाथी खंभा है, इन दोनों शास्त्रों कोई कितना ही तालमेल बिठाए, तालमेल और पागलपन का सिद्ध होगा। वह और भी कनफ्यूजन, और भी विभ्रम पैदा करेगा।
इसलिए अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि मैं कुछ भी कहूं, कुछ भी मानूं, मैं आपकी समग्रता को न कह पाऊंगा। आप ही अपनी समग्रता को कहो ।
कृष्ण भी जब कहने जाएंगे, तो मजे की बात यह कि समग्रता को नहीं कह सकते। क्योंकि कहना अंश का ही होता है, समग्र का नहीं होता । समग्रता इतनी बड़ी घटना है कि जब हम कहने से शुरू करते हैं, तो एक टुकड़े से शुरू करना पड़ता है।
जैसे आप यहां मौजूद हैं। एक साथ हम सब यहां मौजूद हैं। | लेकिन अगर मुझे कल बताना पड़े कि कौन-कौन मौजूद थे, तो मैं कहूंगा, राम मौजूद थे, विष्णु मौजूद थे, नारायण मौजूद थे। मुझे एक रेखा बनानी पड़ेगी। जब मैं कहूंगा, राम मौजूद थे, तो सिर्फ राम मौजूद मालूम पड़ेंगे। फिर मैं कहूंगा, विष्णु मौजूद थे, फिर नारायण मौजूद थे, फिर मैं एक-एक नाम लूंगा । आप सब इकट्ठे मौजूद हैं। जब मैं बोलूंगा, तो मुझे एक-एक बोलना पड़ेगा, लीनियर, एक रेखा में बोलना पड़ेगा; और आप सब बिना रेखा के इकट्ठे मौजूद हैं।
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तो आपकी मौजूदगी की खबर अगर देनी हो वाणी से, तो फिर | सीमा बननी शुरू हो जाएगी। कोई नंबर एक होगा, कोई नंबर दो, कोई नंबर तीन, कोई नंबर चार। यहां आप बिना नंबर के एक साथ मौजूद हैं। और आप ही मौजूद नहीं हैं, पशु-पक्षी मौजूद हैं, आकाश मौजूद है, तारे मौजूद हैं, पृथ्वी मौजूद है, अनंत मौजूद है यहां, इसी क्षण। सब कुछ मौजूद है। पूरा अस्तित्व मौजूद है। अगर इसकी हम चर्चा करने जाएं, तो चर्चा नहीं हो सकेगी। कृष्ण भी | करेंगे, तो नहीं हो सकेगी।
इसलिए अर्जुन जो शब्द उपयोग कर रहा है वह है, इसलिए हे भगवन्, आप ही अपनी उन दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने के योग्य हैं कि जिन विभूतियों के द्वारा इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं। हे योगेश्वर, मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूं ? और हे भगवन्, आप किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं ?