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________________ ॐ गीता दर्शन भाग- 58 हम धोखा देना चाहते हैं अस्तित्व को भी। लेकिन धोखे से हो नहीं | गए हैं, वे सभी पार्शियल हैं, वे सभी आंशिक हैं। जितने भी सकता, क्योंकि खुद को हम कैसे धोखा दे सकेंगे? दूर से जिसने | | वक्तव्य दिए गए हैं, वे सभी आंशिक हैं। कोई वक्तव्य समग्र नहीं मान्यता को मान लिया हो कि यही मेरा ज्ञान है, वह इस तरह की | है। हो भी नहीं सकता। आदमी की भाषा बहुत कमजोर है। कहने प्रवंचना में पड़ ही जाएगा। की सीमा है और होने की कोई सीमा नहीं है। उसके होने का कोई तो अर्जुन स्पष्ट है। उसने कहा कि क्या मेरी मान्यता है। और | अंत नहीं है, और कहने की सीमा है। ऐसे, जैसे मैं अपनी मुट्ठी में अब वह कहता है कि जानना भी मैं चाहता हूं। यात्रा करने को मैं | आकाश बंद करूं। निश्चित ही, मेरी मुट्ठी में भी आकाश है; उत्सुक हूं। आप स्वयं ही अपने से आपको जानते हैं। मैं तो नहीं आकाश का ही एक हिस्सा है। मैं मुट्ठी में सागर को बंद करूं। जान सकता है। जो भी मैं कह रहा है. पता नहीं. ठीक है या गलत | निश्चित, मेरी मुट्ठी में भी सागर आता है; लेकिन सागर का एक है। भाव से कह रहा हूं। हृदयपूर्वक कह रहा हूं। लेकिन मेरी प्रज्ञा | हिस्सा ही आता है। और मेरी मुट्ठी कितनी ही बड़ी क्यों न हो, फिर का इससे कोई स्पर्श नहीं है। ऐसा मैंने जाना नहीं है। ऐसी घटना भी एक अंश ही मेरे हाथ में पकड़ आता है। इसलिए ईश्वर के नहीं घटी है कि मैं कह सकूँ। मैं खुद गवाह बन सकू, ऐसी घटना संबंध में जितने वक्तव्य हैं, सभी आंशिक हैं। कोई वक्तव्य समग्र नहीं घटी है। इसलिए उसने दूसरे गवाहों के नाम लिए। कहा कि नहीं हो सकता। इन महर्षि ने कहा है। उन महर्षि ने कहा है। मैं खुद नहीं कह सकता। __ अर्जुन के इस निवेदन में बड़ी गहरी वेदना है। वह वेदना यह है मैं खुद गवाही नहीं हो सकता हूं अभी। यह सरलता है, यह | कि मैं कैसे कहूं और क्या कहूं! और जो भी कहूंगा, वह अधूरा ईमानदारी है। | होगा। तुम्हारी विभूति, तुम्हारा ऐश्वर्य अपार है। तुम्हारा होना, इसलिए हे भगवन्, आप ही अपनी उन दिव्य विभूतियों को | | तुम्हारा विस्तार असीम है। न कोई आदि है, न कोई अंत। कहीं कोई संपूर्णता से कहने के योग्य हैं कि जिन विभूतियों के द्वारा इन सब | | छोर नहीं मिलते। कहीं सीमा खींच पाऊं, ऐसा कोई आधार नहीं लोकों को व्याप्त करके आप स्थित हैं। | मिलता। मैं कैसे तुम्हारे संबंध में कुछ कहूं! तुम्हीं अपनी समग्रता __ मैं नहीं कह सकूँगा। मैं कितना ही कहूं कि हे भूतों को उत्पन्न को खोल दो मेरे लिए, तो शायद मैं जान लूं। करने वाले, हे सर्वभूतों के ईश्वर, हे देवों के देव, हे जगत के इसमें कुछ बातें समझ लेने की हैं। स्वामी, हे पुरुषोत्तम, मेरे होंठों पर ये सब शब्द ही हैं। भावपूर्ण, चूंकि ईश्वर के संबंध में दिए गए सभी वक्तव्य अधूरे हैं, लेकिन शब्द ही हैं। कितने ही हृदय से कहं. फिर भी मेरा अस्तित्व इसलिए दो वक्तव्य कभी-कभी विरोधी भी मालम पड़ते हैं। वे इनसे स्पर्श नहीं होता है। फिर भी ऐसा मैं नहीं जानता हूं। इसलिए | विरोधी नहीं हैं। जैसे, जिन्होंने ईश्वर को प्रेम से जाना है और आप ही उन दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने के योग्य हैं। | जिन्होंने ईश्वर को प्रेम करके जाना है, जिनकी साधना प्रेम की ही आप ही अपने अस्तित्व को पूरा उघाड़ें, तो उघड़े। आप ही खोलें साधना रही-प्रेम में ही पिघल जाने की, प्रेम में ही डूब जाने की, अपने मंदिर के द्वार, तो मैं प्रवेश करूं। मैं द्वार के बाहर कितनी ही | | बिखर जाने की जिनकी साधना रही-उन्होंने ईश्वर का जो वर्णन दस्तक देता रहूं, मेरे कमजोर हैं हाथ। और मुझे यह भी पक्का पता किया है, वह सगुण है। होगा ही। क्योंकि प्रेम, जिसको भी प्रेम नहीं है कि मैं दीवाल पर दस्तक दे रहा हूं कि दरवाजे पर दस्तक दे | करता है, उसमें अनेक-अनेक गुणों को देखना शुरू कर देता है। रहा हूं! और मैं कितना ही पुकारूं, मुझे यह पक्का पता नहीं कि मैं प्रेम की आंख गुणों को खोज लेती है, उघाड़ लेती है। और प्रेम की तुम्हारी तरफ मुंह करके पुकार रहा हूं कि पीठ करके पुकार रहा हूं! | आंख के साथ गुण चमककर, अत्यंत प्रखर हो जाते हैं। मैं कितना ही दौडूं, बहुत साफ नहीं है कि मैं तुम्हारी तरफ दौड़ रहा | ___ इसलिए भक्तों ने, जिन्होंने प्रेम से प्रभु की तरफ यात्रा की है, हूं कि तुमसे दूर भाग रहा हूं! | और जिनके पास बुद्धि का बहुत बोझ नहीं, हृदय की उड़ान रही है, अर्जुन यह कह रहा है कि मुझ अज्ञानी से तुम्हारे संबंध में | | हृदय से जिन्होंने ईश्वर की व्याख्या करनी चाही है, उन्होंने फिर कौन-सा वक्तव्य दिया जा सकेगा! तुम ही कहो। तुम ही बता | | उसकी व्याख्या सगुण की, स्वभावतः।। सकोगे अपनी समग्रता को, अपनी टोटेलिटी को। लेकिन दूसरी तरफ जिन्होंने हृदय से नहीं, सीधे ज्ञान से उस - यह बात सोचने जैसी है। ईश्वर के संबंध में जितने वक्तव्य दिए तरफ कदम उठाए, और जिन्होंने राग और प्रेम का कोई भी सहारा 86
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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