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________________ 8 मांग और प्रार्थना उस पार जाने की भी जरूरत नहीं रह जाती, वह इसी पार मुक्त हो आज इतना ही। जाता है। रुकें पांच मिनट, कोई उठेन। कीर्तन में सम्मिलित हों। और बैठे लेकिन दुरूह है मार्ग। एक-एक इंच अपने को बदलना है। . ही न रहें। दर्शक न रहें। सम्मिलित हो जाएं। भागीदार हो जाएं। जिसको बदलना है, उसके ही द्वारा बदलाहट लानी है, इसलिए | ताली तो पीट ही सकते हैं। कड़ी तो दोहरा ही सकते हैं। बड़ा कठिन है। जैसे बीमार अपना ही इलाज कर रहा है। डाक्टर भी बीमार हो जाए, तो दूसरे डाक्टर के पास जाता है, क्योंकि खुद का इलाज करने में घबड़ाहट लगती है। दूसरे के इलाज में तो एक दूरी होती है, तटस्थता होती है, निरीक्षण, डायग्नोसिस आसान होती है। खुद का ही इलाज करना हो, तो बड़ा मुश्किल हो जाता है। कोई बड़े से बड़ा सर्जन भी खुद का आपरेशन न करेगा।। हाथ कंप जाएंगे। खुद का तो दूर है, बड़ा सर्जन अपनी पत्नी का भी आपरेशन करने को राजी नहीं होता। अगर पत्नी से झगड़ा हो, तो बात दूसरी है। थोड़ा लगाव हो, तो राजी नहीं होगा। अगर मार ही डालना चाहता हो, तो बात अलग है। नहीं तो डरेगा, क्योंकि हाथ कंपने लगेगा। राग बीच में आ जाता है। और अपने को ही बदलना है, तो अपने से तो बहुत राग है। इसलिए भक्त कहता है, यह अपने बस की बात नहीं कि हम अपने को बदल लें। हम तो जैसे हैं, वैसे हैं। हम अपने को छोड़ सकते हैं तेरे चरणों में, बुरे-भले, चोर-बेईमान, जैसे भी हैं, छोड़ सकते हैं। तू ही बदल लेना। यह भी संभव होता है। और इन दो में साफ होना जरूरी है, नहीं तो आदमी दोनों में डोलता रहता है। दोनों के बीच कोई मार्ग नहीं है। या तो स्पष्ट समझ लेना कि मुझे खुद ही बदलना है, तब फिर किसी परमात्मा को, किसी गुरु को, किसी को बीच में लाने की | जरूरत नहीं है। फिर कितनी ही हो लंबी यात्रा और कितने ही अनंत युग लगें, लड़ते रहना। वह भी बुरा नहीं है। वह भी मनुष्य की गरिमा के अनुकूल है। लेकिन अगर लगता हो कि यह हमसे न हो सकेगा, यह लड़ाई लंबी है, और हम चुक जाएंगे, टूट जाएंगे, तो फिर व्यर्थ लड़ना मत। फिर समर्पण कर देना। सीधा इसी क्षण छोड़ देना। यह भी मनुष्य की गरिमा के अनुकूल है। क्योंकि वही समर्पण भी कर पाता है, जो कम से कम इतना तो अपना मालिक है कि छोड़ सके। आप वही छोड़ सकते हैं, जिसके आप मालिक हैं। ये दो हैं रास्ते, समझौता कोई भी नहीं है। इनमें से जो ठीक-ठीक चुन लेता है अपने अनुकूल रास्ता, वह पहुंच जाता है; व्यर्थ भटकाव से बच जाता है।
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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