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________________ गीता दर्शन भाग-5 देखा । कारण क्या है ? तो राबिया कहती, हंसती मैं उसे देखकर, और रोती मैं तुम्हें देखकर। हंसती मैं उसे देखकर, जो छाया है चारों तरफ। और रोती मैं तुम्हें देखकर कि तुम्हें बिलकुल दिखाई नहीं पड़ रहा! हंसती हूं मैं उसे देखकर जो मुझे आज अनुभव आ रहा है, और रोती हूं मैं उसे सोचकर जो मैंने कल तक माना था। हंसना और रोना एक साथ जब घटित हो, तो हम आदमी को पागल कहते हैं। क्योंकि सिर्फ पागल ही हंसते और रोते एक साथ हैं। क्योंकि हम तो बांट लेते हैं समय में चीजों को। जब हम रोते हैं, तो रोते हैं; जब हंसते हैं, तो हंसते हैं। दोनों साथ-साथ नहीं करते। लेकिन जब कोई बहुत परम अनुभव घटित होता है, जिससे जिंदगी दो हिस्सों में बंट जाती है; पिछली जिंदगी अलग हो जाती है और आने वाली जिंदगी अलग हो जाती है; हम एक चौराहे पर खड़े हो जाते हैं। जहां पीछा भी दिखाई पड़ता है, आगा भी । और जहां दोनों बिलकुल भिन्न हो जाते हैं, और दोनों के बीच कोई संबंध भी नहीं रह जाता। वहां दोहरी बातें एक साथ घट जाती हैं। तो अर्जुन को हर्षित होना भी हो रहा है, भयभीत होना भी हो रहा है । वह प्रसन्न भी है, जो उसने देखा । अहोभाग्य उसका। और वह घबड़ा भी गया है, जो उसने देखा । इतना विराट है, जो उसने देखा, कि वह कंप रहा है। अपनी क्षुद्रता का भी अनुभव तभी होता है, जब हम विराट के सामने होते हैं। नहीं तो अपनी क्षुद्रता का भी अनुभव कैसे हो ? हमको किसी को भी अपनी क्षुद्रता का अनुभव नहीं होता, क्योंकि मापदंड कहां है जिससे हम तौलें कि हम क्षुद्र हैं? जो मेंढक अपने कुएं के बाहर ही न गया हो, उसे कुआं सागर दिखाई पड़े तो कुछ गलत तो नहीं है, बिलकुल तर्कयुक्त है। तो मेंढक जब सागर के किनारे जाएगा, तभी अड़चन आएगी। कहते हैं न कि ऊंट जब तक पर्वत के पास न पहुंचे, तब तक अड़चन नहीं होती। क्योंकि तब तक वह खुद ही पर्वत होता है। पर्वत के करीब पहुंचकर पहली दफा तुलना पैदा होती है। अर्जुन की घबड़ाहट तुलना की घबड़ाहट है। पहली दफा बूंद सागर के निकट है। पहली दफा ना कुछ सब कुछ के सामने खड़ा है। पहली दफा सीमा असीम से मिल रही है। तो घबड़ाहट है। जैसे नदी सागर में गिरती है तो घबड़ाती होगी। अज्ञात में, अनजान में, अपरिचित में प्रवेश हो रहा है। और ओर-छोर मिट जाएंगे, नदी खो जाएगी! जिब्रान ने लिखा है कि जब नदी सागर में गिरती है, तो लौटकर पीछे जरूर देखती है । रास्ता जाना-माना परिचित था । अतीतस्मृति; भविष्य - अपरिचित, अनजान । यह अर्जुन ऐसी ही हालत में खड़ा है, जहां मिट जाएगा पूरा। | रत्ती भी नहीं बचेगी। और अब तक अपने को जो समझा था, वह कुछ भी नहीं साबित हुआ, क्षुद्र निकला और विराट सामने खड़ा है। इसलिए भयभीत भी हो रहा है और हर्षित भी हो रहा है। नदी जब सागर में गिरती है, तो अतीत खो रहा है, इससे भयभीत भी होती होगी; और अज्ञात मिल रहा है, इससे हर्षित भी होती | होगी। तो नदी नाचती हुई गिरती है। उसके पैर में भय का कंपन भी | होता होगा और आनंद की पुलक भी होती है, क्योंकि अब विराट से एक होने जा रही है। जिस दिन गेटे मर रहा था, तो कहते हैं, वह आंख खोलकर | देखता था बाहर, फिर आंख बंद कर लेता था। फिर आंख खोलकर बाहर देखता था, फिर आंख बंद कर लेता था। किसी ने पूछा कि तुम क्या कर रहे हो? तो गेटे ने कहा, मैं देख रहा हूं उस दुनिया को जो छूट रही है और आंख बंद करके देख रहा हूं उस दुनिया को जो आ रही है। और मैं दोनों के बीच बड़ा खिंचा हुआ हूं। जो छूट रहा है, वह व्यर्थ था, लेकिन फिर भी उसके साथ रहा, लगाव हो गया | है। जो मिल रहा है, सार्थक है, लेकिन अपरिचित है, भय भी लगता है। पता नहीं क्या होगा परिणाम ? अर्जुन कह रहा है, हर्षित भी हो रहा हूं और मेरा मन अति भय | से व्याकुल भी हो रहा है। इसलिए हे देव! आप अपने चतुर्भुज रूप को ही ले लें। हे देवेश ! हे जगन्निवास! प्रसन्न हो जाएं, वापस लौट आएं। सीमा में खड़े हो जाएं। असीम को तिरोहित कर लें। इस असीम से मन कंपता है। और हे विष्णो! मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किए हुए तथा | गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूं। इसलिए हे विश्वरूप! हे सहस्रबाहो ! आप उसी चतुर्भुज रूप से युक्त जाइए। 404 यहां मन की एक और गतिविधि समझ लेनी चाहिए। जो न हो, मन उसकी मांग करता है। जो मिल जाए, तो जो नहीं हो जाता है, मन उसकी मांग करने लगता है। अर्जुन खुद ही कहा था कि मुझे दिखाओ अपना विराट रूप, असीम हो जाओ। अब तो मैं देखना चाहता हूं; अनुभव करना चाहता हूं। अब सीमा से मेरी तृप्ति नहीं है। अब तो मैं पूरा का पूरा,
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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