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मैं शाश्वत समय हूं
सवाल तो उठ ही सकता है कि जिनको मैं जिला नहीं सकता, जन्म नहीं दे सकता, उनको मैं मारूं कैसे? यही अर्जुन कह ही रहा है, यही उसकी समस्या है।
कृष्ण इस समस्या को जिस पर्सपेक्टिव, कृष्ण जिस परिप्रेक्ष्य से इस सारी स्थिति को देखते हैं, वे अर्जुन से यह कह रहे हैं कि तेरा यह मानना कि तू इन्हें मार रहा है, वह भी भ्रांति है, क्योंकि मारने वाला मैं हूं। वह भ्रांति भी तू मत पाल। वह सिर्फ तेरी भ्रांति है। तू मार भी नहीं सकता।
इसका मतलब यह हुआ कि जो आदमी आत्महत्या कर रहा है, वह भी सिर्फ भ्रांति में है कि मैं अपने को मार रहा हूं। वस्तुतः कोई अपने को मार नहीं सकता, जब तक कि मौत ही मारने को न आ गई हो, जब कि परमात्मा का ही हाथ न आ गया हो। जब आपको मरने का खयाल आता है, वह खयाल भी आपका नहीं होता। वह भी उसी स्रोत से आता है, जिस स्रोत से जन्म आता है। सिर्फ आपको भ्रांति हो सकती है। और वह भ्रांति आपको लंबे चक्कर में डाल सकती है।
इस जगत में भ्रांतियों के अतिरिक्त हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है । सत्य हमारे हाथ में नहीं है, हम सत्य के हाथ में हैं। हमारे हाथ में सिर्फ भ्रांतियां हो सकती हैं। सत्य हमारे हाथ में नहीं है, हम सत्य
हाथ में हैं। हमारे हाथ में सिर्फ भ्रांतियां हो सकती हैं, झूठ हो सकते हैं। एक आदमी सोचता है, मैंने अपने को मार लिया या मार रहा हूं। उसका सोचना भ्रांत है। लेकिन भ्रांतियां बढ़ सकती हैं, और आदमी समझ सकता है कि उसने यह कर लिया। हम जिंदगीभर इसी तरह की भ्रांतियां रखते हैं।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सुबह बैठकर बहुत चिंतन में लीन है। और उसकी पत्नी ने पूछा कि इतना क्या सोच-विचार में पड़े हो? तो मुल्ला ने कहा, मैं यह सोच रहा हूं कि आदमी जब मरता होगा, तो उसके भीतर क्या होता होगा? कैसे पक्का होता होगा कि मैं मर गया ? समझो कि मैं मर जाऊं, तो मैं कैसे जानूंगा कि मैं मर गया? उसकी पत्नी ने कहा कि छोड़ो मूढ़ता की बातें। जब मरोगे, तो एकदम पता चल जाएगा, हाथ-पैर ठंडे हो जाएंगे बर्फ जैसे !
पंद्रह दिन बाद मुल्ला जंगल में लकड़ियां काट रहा है। अपने गधे को उसने एक झाड़ से बांध दिया है और लकड़ियां काट रहा है। सर्द सुबह है और बर्फ पड़ रही है। उसके हाथ-पैर ठंडे होने लगे। उसने सोचा, निश्चित, मौत करीब है । कहा था पत्नी ने कि
अपने आप पता चल जाएगा। जब हाथ-पैर ठंडे होंगे, अपने आप जान जाओगे कि मरने लगे। फिर उसने सोचा कि मरे हुए आदमी लकड़ियां तो कभी काटते देखे नहीं गए, तो लकड़ी काटना इस वक्त उचित नहीं है। कुल्हाड़ी छोड़कर वह जमीन पर लेट गया । लेटते ही से और ठंडा होने लगा। बर्फ पड़ रही है जोर की। उसने कहा कि निश्चित ही मौत आ गई !
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उसे लेटा हुआ और मरा हुआ देखकर दो भेड़ियों ने उसके गधे पर हमला कर दिया, जो उसके पीछे ही झाड़ से बंधा है। मुल्ला ने अपने मन में कहा, कोई हर्ज नहीं, अगर आज मैं जिंदा होता, तो मेरे गधे के साथ ऐसी स्वतंत्रता तुम नहीं ले सकते थे! काश, मैं जिंदा होता ! यू कुडंट हैव टेकेन सच लिबर्टी विद माई ऐस। लेकिन अब कोई बात ही नहीं है, मैं मर ही गया हूं!
आदमी अगर अपनी आत्महत्या भी कर रहा है, तो वह ऐसी ही भ्रांति में है कि मैं कर रहा हूं। लेकिन जिंदगीभर करने का हम भ्रम पालते हैं, इसलिए मौत में भी हम पाल सकते हैं। हम जिंदगीभर सोचते हैं, यह मैं कर रहा हूं। यह मैं कर रहा हूं। यह मैं कर रहा हूं! हम तो यहां तक सोचते हैं कि सांस भी मैं ले रहा हूं। जी भी मैं रहा हूं!
नहीं, आप सांस भी नहीं ले रहे हैं, जी भी आप नहीं रहे हैं। अगर आप ही सांस लेते होते, तो मौत तो कभी आ ही नहीं सकती। मौत दरवाजे पर आ जाती, आप कहते, अभी मैं सांस लेना बंद नहीं | करता, मैं लेता ही रहूंगा। लेकिन सांस बाहर जाएगी, नहीं लौटेगी, | आप भीतर नहीं ले सकेंगे। जीवन आपसे नहीं चल रहा है, आपकी बहुत गहराई से चल रहा है। जहां से जीवन चल रहा है, वही परमात्मा है; जहां से मौत आती है, वही परमात्मा है। आप सिर्फ बीच की एक लहर हैं।
तो कृष्ण अर्जुन से यह कह रहे हैं कि न तू जन्म दे सकता है, न तू मृत्यु दे सकता है। अगर तू इस सत्य को समझ ले, तो फिर तू निमित्त मात्र है। मौत भी हो तेरे द्वारा, तो वह मेरे से ही होगी। और जन्म भी हो तेरे द्वारा, तो भी मेरे से ही होगा। अंततः मैं हूं । तू बीच में एक निमित्त मात्र है।
इसलिए बहुत हैरानी की बात है कि गीता ऐसे तो दिखाई पड़ती है कि हिंसा में ले जाती है, लेकिन गीता से परम अहिंसक दृष्टि खोजनी बहुत मुश्किल है। लेकिन वह अहिंसा महावीर की अहिंसा से मेल नहीं खाएगी। वह अहिंसा बुद्ध की अहिंसा से भी मेल नहीं खाएगी। मेरे देखे कृष्ण की अहिंसा, बुद्ध और महावीर की अहिंसा