________________
गीता दर्शन भाग-58
तो भी मैं हजार वाला व्रत पूरा करने वाला हूं। इसलिए तू लौट जा, आगे मत बढ़। एक कदम भी आगे मत बढ़। रुक जा वहीं ! बुद्ध ने कहा कि मुझे तो बहुत समय हो चुका, जब मैं रुक गया। अंगुलिमाल, मैं तुझसे कहता हूं कि तू रुक जा । और बुद्ध चलते ही रहे ।
अंगुलिमाल ने जाना कि निश्चित ही यह आदमी पागल है और मुझसे ज्यादा पागल है। बैठे हुए आदमी को कहता है कि तू रुक जा! खुद चलता है और कहता है, लंबा समय हुआ तब से मैं रुक गया हूं ! बुद्ध करीब आ गए, अंगुलिमाल का भी मन हुआ कि जरा इससे बात कर ली जाए। इस आदमी का मतलब क्या है ! उसने पूछा, तुम्हारा मतलब क्या है रुक जाने का ! तुम चलते हुए कहते कि मैं रुक गया!
बुद्ध ने कहा, जब मन ही रुक गया, तो शरीर के चलने, न चलने क्या होगा! तू बैठा हुआ दिखाई पड़ता है, लेकिन जितने जोर से तेरा फरसा चल रहा है, उससे भी ज्यादा जोर से तेरा मन चल रहा है । इसलिए मैं कहता हूं, अंगुलिमाल, तू ही रुक जा । मैं तो रुक गया हूं।
अंगुलिमाल का भी हाथ जरा ढीला हो गया। लेकिन फिर उसे याद आई कि पता नहीं वह हजार का व्रत पूरा हो, न हो। आदमी कोई आए, न आए ! उसने कहा, कुछ भी हो, दया मेरे मन भी आती है, लेकिन फिर भी मैं अपने व्रत से बंधा हूं। और मैं तुम्हें काटूंगा। बुद्ध ने कहा, काटने के पहले मेरी एक छोटी-सी आकांक्षा है मरते आदमी की, वह तू पूरी कर दे। यह जो सामने वृक्ष लगा है, इसका एक पत्ता तोड़कर मुझे दे दे।
अंगुलिमाल ने जाना कि आदमी बिलकुल ही पागल है। यह भी कोई इच्छा है मरते वक्त ! उसने वहीं से फरसा ऊपर मारा। एक पत्ता क्या, हजार टूटकर नीचे गिर गए। बुद्ध ने कहा, यह आधी आकांक्षा पूरी हो गई, आधी और पूरी कर दे। इनको वापस जोड़ दे! अंगुलिमाल ने कहा, मैं पहले ही समझ गया था कि तू पागल टूटे हुए पत्ते जोड़े नहीं जा सकते !
तो बुद्ध ने कहा, जितनी अकड़ से तूने काटा था, उससे तो ऐसा लगता था कि तू जोड़ भी सकेगा। इतनी अकड़ से तूने काटा था कि कोई बड़ा काम कर रहा है। यह तो बच्चे भी कर देते। यह तो बच्चे भी कर देते, जो तूने किया है इतनी अकड़ से । इसमें अकड़ क्या थी! जोड़ दे, तो समझें। और अगर न जोड़ सकता हो, तो फिर मैं तुझसे कहता हूं, तू मेरी गर्दन काट। लेकिन थोड़ा सोच लेना, एक
| पत्ता भी जो नहीं जोड़ सकता है, वह गर्दन काटने का हकदार है? अब तू अपना फरसा उठा ले और तू गर्दन काट डाल। लेकिन जिसे तू बना नहीं सकता था, उसे मिटाने का तुझे कोई हक न था ।
अंगुलिमाल का फरसा नीचे गिर गया और उसका सिर बुद्ध के पैरों पर गिर गया।
जीवन में हिंसा, हत्या अगर बुरी कही गई है, तो उसका कुल | कारण इतना है कि तुम जन्म अपने को नहीं दे सकते। आत्महत्या का अगर सारे धर्मों ने विरोध किया है, तो कुल कारण इतना है कि तुम जब अपने को जन्म नहीं दे सकते, अपने जन्म के मालिक नहीं हो, तो तुम अपनी मृत्यु के मालिक कैसे हो सकते हो ! वह मालकियत छीननी, परमात्मा के खिलाफ बड़े से बड़ा पाप है।
इस संदर्भ में आपको मैं कहना चाहूंगा, पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक आल्बेयर कामू ने अपनी एक किताब की शुरुआत इस वाक्य से ही की है कि मनुष्य के समक्ष आत्महत्या ही सबसे बड़ी दार्शनिक समस्या है, दि ओनली मेटाफिजिकल प्राब्लम बिफोर मैन इज़ स्युसाइड |
अब आल्बेयर कामू, सार्त्र, काफ्का और हाइडेगर, पश्चिम के आधुनिकतम, श्रेष्ठतम विचारक ऐसा मानते हैं कि एक ही तो स्वतंत्रता है आदमी को कि वह आत्महत्या कर ले। और तो कोई स्वतंत्रता नहीं मालूम पड़ती। इसलिए वे कहते हैं कि आत्महत्या का हक होना चाहिए। हम और कुछ तो कर ही नहीं सकते। जीवन पा | नहीं सकते, जन्म पा नहीं सकते। एक काम ही हम कर सकते हैं, आत्महत्या का। वही तो हमारी स्वतंत्रता है । उसका हक होना | चाहिए। कोई आदमी अपनी आत्महत्या करना चाहे, तो उसे हक होना चाहिए।
उनकी बात तर्कयुक्त मालूम होती है। लेकिन उनकी बात जीवन के विराट तर्क के साथ मेल नहीं खाती। क्योंकि जिस चीज का हम प्रारंभ नहीं कर सकते, उसका अंत भी उसी के हाथों में छोड़ देना | उचित है, जिसने प्रारंभ किया है।
202
कृष्ण कहते हैं, मृत्यु भी मैं हूं, जन्म भी मैं हूं। जन्म का कारण भी मैं, मृत्यु का कारण भी मैं।
थोड़ी कठिनाई होगी यह जानकर कि अर्जुन पूछ सकता है कृष्ण से, तो फिर मैं इन लोगों को कैसे मारूं ? इनकी हत्या मैं क्यों करूं? यह तत्क्षण खयाल में उठेगा। जब बुद्ध अंगुलिमाल को कहते हैं कि जिसे तू जोड़ नहीं सकता, उसे तू काट नहीं सकता। मत काट, क्योंकि जोड़ने का तू हकदार नहीं है। अर्जुन के मन में भी यह