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________________ आंतरिक सौंदर्य है। यह आखिरी हिम्मत है। इससे बड़ी हिम्मत नहीं है जगत में। और जो इतनी हिम्मत न जुटा पाए, वह अद्वैत में प्रवेश नहीं कर पाता। काली विसर्जित हो गई। रामकृष्ण अकेले रह गए। या कहें कि चैतन्य मात्र बचा। छः दिन बाद होश में आए। आंखें खोलीं, तो जो पहले शब्द थे, वे ये थे कि कृपा गुरु की, आखिरी बाधा भी गिर गई। दि लास्ट बैरियर हैज फालेन । रामकृष्ण के मुंह से शब्द आखिरी बाधा, लास्ट बैरियर ! सोचने में भी नहीं आता। रामकृष्ण के सामान्य भक्तों ने इस उल्लेख को अक्सर छोड़ दिया है, क्योंकि यह उल्लेख उनके पूरे जीवन की साधना के विपरीत पड़ता है। इसलिए बहुत थोड़े से भक्तों ने इसका उल्लेख किया है। बाकी भक्तों ने इसको छोड़ ही दिया है। क्योंकि यह तो मामला ऐसा हुआ कि जब उतरना ही था, तो फिर चढ़े क्यों? इतनी मेहनत की। काली के लिए रोए - गाए, नाचे - चिल्लाए, चीखे, प्यास से भरे, जीवन दांव पर लगाया। फिर काली को पा लिया। फिर दो टुकड़े किए। तो वह लिखने वाले भक्तों को बड़ा कष्टपूर्ण मालूम पड़ा है। इसलिए अधिक भक्तों ने इस उल्लेख को छोड़ ही दिया है। मगर यह उल्लेख बड़ा कीमती है। और जिनको भी भक्ति के मार्ग पर जाना है, उन्हें याद रखना है कि जिसे हम आज बना रहे हैं, उसे कल मिटा देना पड़ेगा। आखिरी छलांग, सीढ़ी से भी उतर जाने की, नाव भी छोड़ देने की, रास्ता भी छोड़ देने का, विधि भी छोड़ देने की। तो जो रामकृष्ण को हुआ है काली के दर्शन में, वह अंतिम नहीं है। अंतिम तो यह हुआ, जब काली भी खो गई। जब कोई प्रतिमा नहीं रह जाती मन में, कोई शब्द नहीं रह जाता, कोई आकार नहीं रह जाता, जब सब शब्द शून्य हो जाते हैं, सब प्रतिमाएं लीन हो जाती हैं असीम में, सब आकार निराकार में डूब जाते हैं, जब न मैं बचता हूं, न तू बचता है...। एक बहुत बड़े विचारक, यहूदी चिंतक और दार्शनिक बूबर ने एक किताब लिखी है, आई एंड दाउ । इस सदी में लिखी गई दो-चार अत्यंत कीमती किताबों में से एक है। और इस सदी में हुए - चार कीमती आदमियों में से मार्टिन बूबर एक आदमी है। बूबर ने लिखा है कि अंतिम जो अनुभव है परमात्मा का, वह है, आई एंड दाउ – मैं और तू । लेकिन यह अंतिम नहीं है। यह अंतिम के पहले का है। लेकिन यहूदी विचार हिम्मत नहीं कर पाता आखिरी छलांग की। यही फर्क है । यहूदी, इस्लाम, ईसाइयत, ये तीनों में से कोई भी आखिरी हिम्मत नहीं कर पाते, आखिरी छलांग की। अंतिम तक जाते हैं, बिलकुल आखिर तक चले जाते हैं, लेकिन दो को बचा लेते हैं। फिर दो को छोड़ने की मुश्किल हो जाती है। इसलिए इस्लाम कभी भी राजी नहीं हो पाया कि मंसूर जो कहता है, अनलहक — मैं ब्रह्म हूं - यह बात ठीक है। क्योंकि यह तो बात आखिरी हो गई ! यह तो परमात्मा के साथ एक होने की बात ठीक नहीं है, अधार्मिक मालूम पड़ती है। इसलिए मंसूर की हत्या कर दी गई। इस्लाम कभी सूफियों को राजी नहीं हो पाया स्वीकार करने को पूरी तरह से। हालांकि सूफी ही इस्लाम की गहनतम बात है। वही उनका रहस्य है। वही उनकी आत्मा है। लेकिन इस्लाम कभी राजी | नहीं हो पाया। क्योंकि इस्लाम अंतिम के पहले रुक जाता है, दो, परमात्मा और भक्त । ईसाइयत भी रुक जाती है, परमात्मा और भक्त। यहूदी भी रुक जाते हैं, परमात्मा और भक्त । लेकिन इससे कोई अड़चन नहीं आती। क्योंकि जो आदमी यहां तक पहुंच जाता है, वह नहीं रुकता। इसे थोड़ा समझ लें। इस्लाम भला रुक जाता हो। लेकिन इस्लाम को मानकर भी जो आदमी इस आखिरी जगह पहुंच जाएगा, उसको तो फिर खयाल में आ जाता है कि अब यह आखिरी बात और रह गई । संसार का आखिरी हिस्सा और रह गया। इसे भी छोड़ दूं। वह इससे छलांग लगा लेता है। सूफी वे ही मुसलमान हैं, जिन्होंने छलांग लगा ली। | लेकिन इस्लाम की जो व्यवस्था है धर्म की, वह दो पर रुक जाती है। आम भक्ति के जितने भी दर्शन हैं, वे दो पर रुक जाते हैं। परम ज्ञान वह नहीं है। लेकिन उसके बिना भी परम ज्ञान नहीं होता, यह खयाल में रखना। उससे सौ डिग्री तक पानी उबल जाता है, और आखिरी छलांग आसान हो जाती है। जिनमें हिम्मत है, वे लगा लेते हैं। और उस समय तक पहुंचते-पहुंचते हिम्मत भी आ जाती है। जिसने सारा संसार खो दिया, वह अब इस एक परमात्मा की प्रतिमा को भी कब तक सम्हाले छाती से लगाए हुए फिरेगा? जो सब को छोड़ चुका, जिसने सारे बंधन तोड़ दिए, जिसने सारा बोझ हटा दिया, वह इस प्रतिमा को भी कब तक ढोएगा? एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, कितनी देर तक ? एक दिन वह इसे भी कहेगा, अब यह भी बोझ हो गई । इसको भी विसर्जित करता हूं। इसलिए हमने हिंदुस्तान में एक व्यवस्था की है कि हम परमात्मा 433
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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