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________________ गीता दर्शन भाग-5 की मूर्ति बनाते हैं। गणेशोत्सव आता है, गणेश की मूर्ति बनाते हैं। काफी शोरगुल मचाते हैं, भक्ति-भाव प्रकट करते हैं । और फिर जाकर समुद्र में विसर्जित कर आते हैं! यह प्रतीक है असल में कि जैसे अभी इस मिट्टी की मूर्ति के साथ खेल रहे हो, बना रहे हो, नाच रहे हो, गा रहे हो और फिर हिम्मत से विसर्जित कर आते हो, ऐसे ही अंत में एक दिन परमात्मा की सब प्रतिमाएं विसर्जित करने की हिम्मत रखना । इस हिम्मत का प्रशिक्षण होता रहे। इसलिए हिंदुस्तान अकेला मुल्क है, जहां हम भगवान को बनाते और मिटाते, दोनों काम करते हैं। दुनिया में कोई कौम भगवान को बनाने और मिटाने के दोनों काम नहीं करती। बनाने का काम करते हैं कुछ लोग; वे मिटा नहीं पाते। कुछ लोग इस डर से कि फिर मिटाना पड़े, बनाने का काम ही नहीं करते। जैसे इस्लाम है। वह प्रतिमा नहीं बनाता कि कहीं प्रतिमा में फंस न जाएं। ईसाइयत ने प्रतिमाएं बना ली हैं, लेकिन उनको विसर्जन करने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पाता । इस मुल्क में हमने एक अनूठा प्रयोग किया। हम भगवान के साथ भी खेलते हैं। बना लेते हैं। और जब बना लेते हैं, तो पूरी भक्ति-भाव प्रकट करते हैं। कोई ऐसा नहीं कि अपने ही बनाए हुए हैं, क्या भक्ति प्रकट करनी ! अभी खुद ही रंगा-रोपा है इनको । अब क्या इनके चरणों में गिरना ! नहीं, उसकी हम फिक्र छोड़ देते हैं। जैसे ही हमने प्रतिष्ठा कर ली कि भगवान हैं, हम चरणों में गिर जाते हैं। और समारोह पूरा हुआ, और हम कंधों पर अर्थी उठाकर उनको समुद्र में, नदी में, सरोवर में डुबा आते हैं। यह बनाना और मिटाना, चढ़ना और उतरना, खोजना और खोज छोड़ देना, ज्ञान इकट्ठा करना, और ज्ञान का त्याग कर देना, दोनों की सम्मिलित जो व्यवस्था है, यह ध्यान में रहे, तो आप कभी भटकेंगे नहीं। अन्यथा भटकाव हो सकता है। यह अनुभव द्वैत का है, परम ज्ञान के एक क्षण पहले का, लेकिन परम ज्ञान नहीं है। एक मित्र ने पूछा है कि कीर्तन के संबंध में आप कहते हैं, धुन लगाएं, सम्मिलित हों । तो क्या शरीर के बिना कीर्तन में सम्मिलित नहीं हुआ जा सकता? क्या मन ही मन में कीर्तन नहीं किया जा सकता ? ब राबर किया जा सकता है। लेकिन और किन-किन बातों में आप यह शर्त रखते हैं? जब किसी को प्रेम करना होता है, तो मन ही मन में करते हैं कि शरीर को भी बीच में लाते हैं? तब नहीं कहते कि प्रेम मन ही मन में नहीं किया जा सकता! शरीर को क्यों बीच में लाना ! कितनी चीजों में खयाल रखते हैं इसका ? अगर बाकी सब चीजों में खयाल रखते हों, मैं राजी हूं। बिलकुल शरीर का उपयोग मत करें । कीर्तन भीतर ही भीतर हो जाएगा। लेकिन अगर बाकी सब चीजों में शरीर को लाते हैं, तो धोखा मत दें अपने को । क्या है शरीर को कीर्तन में लाने में? जब किसी को प्रेम करते हैं, तो उसको गले लगा लेते हैं। क्यों शरीर को बीच में लाते हैं? | हाथ हाथ में ले लेते हैं। क्यों हाथ को बीच में ले आते हैं? ऐसे दूर खड़े रहें बुद्ध की मूर्ति बने हुए ! मन ही मन में! लेकिन तब आपको लगेगा कि अरे, यह समय खो रहा है। यह मन ही मन में कब तक करते रहेंगे ? आपका मन और आपका शरीर अभी दो नहीं हैं। अभी आपका | मन और आपका शरीर एक है। अभी जल्दी मत करें। अभी आपका | मन आपके शरीर का ही दूसरा छोर है। वह शरीर से ही संचालित हो रहा है। शरीर ही उसको अभी गति दे रहा है। इसलिए उचित है कि कीर्तन में अभी शरीर को भी डूबने दें, तो ही आपका मन डूब पाएगा। और जिस दिन आप मन ही मन में डुबाने में सफल हो जाएंगे, मुझसे पूछने की कोई जरूरत नहीं रहेगी। आपको खुद ही पता चल जाएगा कि शरीर को बीच में लाने की कोई जरूरत नहीं, मन में ही हो जाता है। तो आप मन में कर लेना। लेकिन जब तक यह नहीं हो सकता, तब तक शरीर से ही शुरू करें। आप शरीर में जी रहे हैं, इसलिए आपकी सब यात्रा शरीर से ही शुरू होगी। और जो यह धोखा देगा अपने को कि शरीर का क्या करना है, वह असल में धोखा दे रहा है। वह धोखा यह दे रहा है कि वह करना ही नहीं चाहता। आदमी वहीं से तो चल सकता है, जहां खड़ा है। जहां आप खड़े नहीं हैं, वहां से चलेंगे कैसे? आपकी मन में स्थिति क्या है? अभी आपको शराब पिला दें, तो शराब तो शरीर में जाती है, मन में तो जाती नहीं। क्या आप समझते हैं, आप होश में बने रहेंगे? आप | बेहोश हो जाएंगे। क्यों बेहोश हो गए आप? शराब तो शरीर में जाती है, कोई मन में तो जाती नहीं। कोई आत्मा में तो घुस नहीं जाती शराब। मन में आप होश में रहे आइए, पी लीजिए शराब, 434
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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