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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 कहते हैं, जब जानने वाला न बचे, जाना जाने वाला न बचे। दोनों हमारी आसक्ति संसार में ही नहीं बनती, हमारी आसक्ति हमारी खो जाएं। दृश्य और द्रष्टा दोनों खो जाएं। ज्ञाता और ज्ञेय दोनों खो | साधना के उपाय से भी बन जाती है। अब किसी जैन को कहो कि जाएं। मात्र ज्ञान रह जाए। सिर्फ जानना मात्र रह जाए। न तो उस तरफ महावीर के दो टुकड़े कर दो। किसी बौद्ध को कहो कि बुद्ध के दो कुछ हो जानने को, न इस तरफ कुछ हो जानने वाला। बस, सिर्फ टुकड़े कर दो! राम के भक्त को कहो कि हटाओ, फेंक दो इस मूर्ति ज्ञान रह जाए। उस ज्ञान की आखिरी घड़ी को परम ज्ञान कहा है। को मन से! बेचैनी होगी कि क्या बातें कर रहे हैं! यह कोई बात हुई महावीर ने उसे कैवल्य कहा है। कैवल्य का अर्थ है, बस, | धर्म की? अध्यात्म हुआ? यह तो घोर नास्तिकता हो गई। केवल ज्ञान। कुछ नहीं बचा। वह जो खोज रहा था, वह भी नहीं है लेकिन रामकृष्ण जानते थे कि जो आदमी कह रहा है, वह ठीक अब। जिसको खोज रहा था, वह भी नहीं है अब। वह दोनों का द्वंद्व | | तो कह रहा है। यह मेरी मजबूरी है कि मैं न तोड़ पाऊं।' विलीन हो गया। अब सिर्फ होना मात्र, जस्ट बीइंग, जस्ट लेकिन उस गुरु ने कहा, तू मेरे सामने बैठ और ध्यान कर। और कांशसनेस, सिर्फ होश भर बचा है। वे दोनों छोर खो गए। दोनों | जैसे ही काली भीतर आए, उठाना तलवार और तोड़ देना! रामकृष्ण छोरों के बीच में जो ज्ञान की घटना घटती है, वही बची है। ने कहा, लेकिन मैं तलवार कहां से लाऊंगा? उस गुरु ने बड़ी तो काली का दर्शन परम ज्ञान नहीं है। कृष्ण का दर्शन भी परम | । कीमती बात कही। उस गुरु ने कहा कि तू काली को ले आया । ज्ञान नहीं है। राम का दर्शन भी परम ज्ञान नहीं है। परम ज्ञान के | भीतर, तलवार न ला सकेगा! काली कहां थी पहले? तू काली को पहले की आखिरी सीढ़ी है, जहां से आप सीढ़ियां छोड़ देते हैं। | ले आया, तो तलवार तो तेरे बाएं हाथ का खेल है। जैसे काली को ऐसा हआ रामकृष्ण के जीवन में। रामकृष्ण तो काली के भक्त तूने कल्पना से अपने भीतर विराजमान करके साकार कर लिया है, थे। अनूठे भक्त थे। और उस जगह पहुंच गए, जहां काली और वे | ऐसे ही उठा लेना तलवार को। ही बचे। लेकिन तब उनको एक बेचैनी होने लगी कि यह तो द्वैत रामकृष्ण ने कहा, तलवार भी उठा लूंगा, तो तोड़ नहीं पाऊंगा। है, और अद्वैत का अनुभव कैसे हो? अभी भी दो तो हैं ही, मैं हूं, | मैं भूल ही जाऊंगा। तुमको भी भूल जाऊंगा, तुम्हारी बात को भी काली है। अभी दो की दई नहीं खोती। अभी दो तो बने ही रहते हैं। भल जाऊंगा। काली दिखी कि मैं तो मंत्रमग्ध हो जाऊंगा। मैं तो तो वे एक अद्वैत गुरु की शरण में गए। उस अद्वैत गुरु को उन्होंने | नाचने लगूंगा। मैं फिर यह तलवार नहीं उठा सकूँगा। कहा कि अब मैं क्या करूं? ये दो अटक गए हैं, इसके आगे अब तो उस गुरु ने कहा कि फिर मैं कुछ करूंगा बाहर से। एक कांच कोई गति नहीं होती। अब दिखाई भी नहीं पड़ता कि जाऊं कहां? | का टुकड़ा गुरु उठा लाया और उसने रामकृष्ण को कहा कि जब मैं शांत हो जाता हूं; काली खड़ी हो जाती है। मैं होता है, काली होती | देखेंगा कि तू मस्त होने लगा, डोलने लगा...। क्योंकि जब भीतर है। बड़ा आनंद है। गहन अनुभव हो रहा है। लेकिन दो अभी बाकी | काली आती, तो रामकृष्ण डोलने लगते, हाथ-पैर कंपने लगते, हैं। एक आखिरी अभीप्सा मन में उठती है कि एक कैसे हो जाऊं? | रोएं खड़े हो जाते। और चेहरे पर एक अदभुत आनंद का भाव, तो जिस गुरु से उन्होंने कहा था, उसने कहा, फिर थोड़ी हिम्मत | मस्ती छा जाती। तो उस गुरु ने कहा कि मैं तेरे माथे पर इस कांच जुटानी पड़ेगी। और हिम्मत कठिन है और मन को चोट करने वाली | से काट दूंगा; जोर से लहूलुहान कर दूंगा; दो टुकड़े चमड़ी को है। गुरु ने कहा कि भीतर जब काली खड़ी हो, तो एक तलवार काट दूंगा। और जब मैं यहां तेरी चमड़ी काटूं, तब तुझे खयाल उठाकर दो टुकड़े कर देना। रामकृष्ण ने कहा कि क्या कहते हैं, अगर आ जाए, तो चूकना मत। उठाकर तलवार तू भी दो टुकड़े तलवार उठाकर दो टुकड़े! काली के! ऐसी बात ही मत कहें! ऐसा | भीतर कर देना। सुनकर ही मुझे बहुत दुख और पीड़ा होती है। और ऐसा ही किया गया। गुरु ने कांच से काट दी माथे की तो गुरु ने कहा, तो फिर तू अद्वैत की फिक्र छोड़ दे। क्योंकि अब | चमड़ी, ठीक जहां तृतीय नेत्र है। ऊपर से नीचे तक चमड़ी को दो काली ही बाधा है। अब तक काली ही साधक थी, साधन थी, | टुकड़े कर दिया। खून की धार बह पड़ी। रामकृष्ण को भीतर होश सहयोगी थी; अब काली ही बाधा है। अब सीढ़ी छोड़नी पड़ेगी। | आया। वे तो नाच रहे थे। मस्त हो रहे थे भीतर। होश आया। अब तू सीढ़ी को मत पकड़। माना कि इसी सीढ़ी से तू इतनी दूर हिम्मत की और उठाकर तलवार से काली के दो टुकड़े कर दिए। आया है, इसलिए मोह पैदा हो गया है, आसक्ति बन गई है। रामकृष्ण, और काली के दो टुकड़े! यह भक्त की आखिरी हिम्मत 1432]
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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