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3 बेशर्त स्वीकार 8
उनका किया हुआ वैसा ही मिट जाता है, जैसे बच्चे रेत पर घर | | जाता है। उसका कोई आग्रह नहीं होता। आग्रह हो, तो ही चेष्टा हो बनाते हैं। और बना भी नहीं पाते और मिट जाता है। थोड़ी देर | सकती है। आग्रह न हो, तो चेष्टा नहीं होती; कर्म होता है, लगती है हमारे घरों के मिटने में। थोड़ा समय लगता है, इससे भ्रम कर्तारहित होता है। प्रयास, धक्का, जबरदस्ती नहीं होती। पैदा होता है। लेकिन सब मिट जाता है।
पर हमारा मन ऐसा है कि हमारे पास दो ही तरह के उपाय हैं, क्या कर लेंगे आप? क्या बना लेंगे? बन भी जाएगा, तो क्या आमतौर से। एक रास्ता, आपने रास्ते पर देखा हो, एक आदमी होगा? वह जो नियति का विचार है, वह यह कहता है, आदमी कर जानवरों को हकेलकर ले जाता है, तो पीछे से डंडा मारता है। एक भी ले, तो क्या होगा? करने में अपनी शक्ति, अपना समय, अपना | रास्ता यह है कि कोई पीछे से हमें धक्का दिए जाए, तो हम चलते जीवन, अपना अवसर खो देगा।
हैं। एक रास्ता यह है कि अगर होशियार हो कोई, तो आगे घास का इसका यह मतलब नहीं है कि आदमी कुछ भी न करे। आदमी | एक गट्ठर लेकर चलने लगे, तो भी जानवर उसके पीछे चलता है, कुछ किए बिना नहीं रह सकता, कुछ करेगा। लेकिन स्वयं को कर्ता | क्योंकि आगे आशा दिखाई पड़ती है कि वह घास मिलने वाला है। मानकर न करे। छोड़ दे उस पर। वह जो करवाए, कर ले। फिर वह | तो या तो भविष्य में परिणाम की आशा हो, या परिस्थिति में जो दे दे, ले ले।
| जबरदस्ती का धक्का हो, इन दो से हम चलते हैं। कर्ता के चलने का जब हम छोड़ेंगे कर्म उस पर, तभी फल भी उस पर छूटेगा। कर्म | यही उपाय है। तो आपको अगर आशा न हो परिणाम की, तो फिर रखेंगे अपने हाथ में, फल छोड़ेंगे उसके ऊपर! यह बेईमानी शुरू कर्म करने का मन नहीं होता। अब अगर घास का गट्ठर न दिखता हो गई। हमने ईश्वर को भी धोखा देना शुरू कर दिया। इसका यह हो, तो फिर क्यों चलें? फिर चलने की कोई जरूरत नहीं है। और मतलब नहीं कि आपसे कर्म छीन लिया जाता है। सिर्फ कर्ता छीना | या फिर पीछे पत्नी, बच्चे, परिस्थिति धक्का न दे रही हो कि करो, जा रहा है, कर्म नहीं छीना जा रहा है।
तो भी चलने का नहीं लगता, कि क्या सार? किसके लिए चलें? और मजा तो यह है कि जिसका कर्ता शांत हो जाता है, वह इतने लोगों को बच्चे पैदा हो जाते हैं, तो बहुत दौड़-धूप करते हैं, कर्म कर पाता है, जितने आप कभी भी न कर पाएंगे। क्योंकि | क्योंकि बच्चों के लिए जी रहे हैं। उनको पता नहीं कि बच्चे धक्के आपको कर्ता को भी ढोना पड़ता है। उसके पास सिर्फ कर्म रह जाते दे रहे हैं पीछे से! कि चलो, अब रुक नहीं सकते। अब उनको हैं। वह शुद्ध उसकी ऊर्जा कर्म बन जाती है। आपको तो अहंकार, लगता है कि जीने में कोई कारण आ गया। अब यह करना है। अब
और कर्ता, और मैं, इसको काफी ढोना पड़ता है। ज्यादा शक्ति तो कर्तव्य है। इसी में व्यय होती है। कर्म तो आपसे होगा। लेकिन आप उसके ये दो उपाय हमें साधारणतः दिखाई पड़ते हैं। अहंकार पशु है, करने वाले नहीं होंगे।
वह पशु की भाषा समझता है। नदियां बह रही हैं। अगर किसी नदी को यह खयाल आ जाए एक और, अहंकार से ऊपर, जीने का उपाय है। वह आत्मिक कि मुझे तो फलां जगह जाकर सागर में गिरना है, वह नदी पागल | जीवन है। वहां न आगे परिणाम का कोई सवाल है, न पीछे किसी हो जाएगी। नदियां बह रही हैं, कहीं कोई फिक्र नहीं है कि कहां धक्के का कोई सवाल है। आप जीवित हैं। जीवित होना...। जैसे गिरे, पूर्व में गिरे कि पश्चिम में; कि अरब की खाड़ी में गिरे कि | फूल खिला है, उससे सुगंध गिर रही है। इसलिए नहीं कि कोई रास्ते बंगाल की खाड़ी में; कहां गिरे, हिंद महासागर में कि पैसिफिक में; से गुजरेगा, उसके लिए; कि कोई बहुत बड़े सुगंध के पारखी आ नदी को कोई चिंता नहीं है। नदी बही जा रही है अपने स्वभाव से। | रहे हैं, उनके लिए। रास्ते से कोई न भी गुजरे, तो फूल की सुगंध पहाड़ आएंगे, काटेगी। रास्तों में अड़चनें होंगी, किनारा काटकर | गिरती रहेगी। क्योंकि फूल का अर्थ ही सुगंध का होना है। गुजरेगी। और एक दिन सागर में गिर जाएगी। नदी बेचैन नहीं है। जीवन का अर्थ कर्म है। न पीछे कोई आकांक्षा है, न आगे कोई लंबी यात्रा है, लेकिन कोई बेचैनी नहीं है।
सवाल है। आप जीवित हैं। जीवित होने का अर्थ कर्म है। इस कर्म जो व्यक्ति सब कुछ परमात्मा पर छोड़ देता है, वह भी ऐसे ही का होना आगे-पीछे से नहीं आ रहा है, भीतर से आ रहा है। भीतर यात्रा करता है। कर्म तो बहुत होता है उससे, लेकिन कर्ता नहीं से जब आता है, तो परमात्मा से आता है। पीछे से जब आता है, होता। फिर सागर जहां उसे गिरा लेता है, वहीं गिरने को राजी हो तब संसार के धक्के से आता है। आगे से जब आता है, तब मन
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