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गीता दर्शन भाग-5
की वासना, इच्छा से आता है। जब भीतर से आता है, सहज, अभी और यहीं, जैसे नदी बह रही है, फूल खिल रहा है और सुगंध बरस रही है, ठीक ऐसे जब आपके भीतर से आने लगता है...।
नियति का अर्थ है, जीवन को इस क्षण में भीतर से जीने का उपाय। अपने को छोड़कर परमात्मा की जो अनंतता अभी मौजूद है, उस अनंतता में अभी खिल जाने की व्यवस्था । अभी, यहीं । आगे-पीछे का कोई सवाल नहीं है।
बहुत कर्म घटित होता है ऐसे आदमी से, लेकिन कर्म का बोझ नहीं होता ऐसे आदमी पर । ऐसा आदमी बहुत करता है, लेकिन कभी भी, मैं कर रहा हूं, ऐसी अस्मिता इकट्ठी नहीं होती। ऐसा आदमी जानता है, प्रभु ने जो करवाया, वह करवाया। जो नहीं करवाया, वह नहीं करवाया। जो उसकी मर्जी, यह उसका आखिरी भाव बना रहता है।
समझौता नहीं है। सत्य के जगत में कभी कोई समझौता नहीं है। मन के जगत में सब समझौता है। मन हमेशा कोशिश करता है, सबको सम्हाल लो। और एक के साधने से सब सध जाता है । और सबको साधने से एक भी नहीं सध पाता है।
एक प्रश्न और, और फिर मैं सूत्र लूं। उस प्रश्न को मैं रोके हुए हूं, इतने दिन से वह रोज पूछा जाता है। तो मैंने सोचा था, जिस दिन नहीं पूछेंगे, उस दिन जवाब दे दूंगा। आज नहीं पूछा है।
एक सज्जन रोज ही पूछे चले जाते हैं कि क्या आप भगवान हैं? इसका साफ-साफ उत्तर दें।
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रे लिए भगवान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। तो अगर कोई कि मैं भगवान नहीं हूं, तो वह असत्य बोल रहा है, मेरे लिए। मैं भगवान हूं, उतना ही जितने आप भगवान हैं। भगवान के के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। आपको पता हो या न पता हो ।
तो वे मित्र रोज लिखकर पूछे चले जाते हैं कि क्या आप भगवान हैं? अगर आप नहीं हैं, तो आप जाहिर करें। अपने शिष्यों को समझा दें कि वे आपको
भगवान न कहें।
न्होंने नाम नहीं लिखा है, नहीं तो मैं अपने शिष्यों को कहूं कि उनको भी भगवान कहें।
मेरी कोशिश यह है कि आपकी समझ में आ जाए कि आप भगवान हैं। उनकी कोशिश यह है कि मेरी समझ में डाल दें कि मैं भगवान नहीं हूं!
सारी चेष्टा धर्म की यह है कि आपको खयाल में आ जाए कि आप भगवान हैं। और जब तक यह खयाल न आ जाए, तब तक जीवन परेशानी होगी, दुख होगा, पीड़ा होगी। इससे कम में काम नहीं चलेगा। इससे कम में कोई तृप्ति भी नहीं है। इसके पहले कोई मंजिल भी नहीं है। इसके पहले उपद्रव ही है। यही है मुकाम ।
लेकिन हमें तकलीफ होती है। हमें तकलीफ होती है। तकलीफ क्या होती है ? क्योंकि हमने भगवान की कुछ धारणा बना रखी हैं।
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वे मित्र बार-बार लिखते हैं कि भगवान ने तो सृष्टि बनाई, आपने सृष्टि बनाई ?
-भावतः, भगवान की हमारी धारणा है, जिसने सृष्टि
स्व बनाई। लेकिन हमारी यह कल्पना में भी नहीं है कि
सृष्टि भी भगवान अपने भीतर अपने में से ही बनाएगा। और उसके बाहर तो कुछ लाने को है नहीं। भगवान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, कोई मैटीरियल भी नहीं है, जिससे वह सृष्टि बना ले। अगर वह सृष्टि भी बनाएगा, तो वह वैसे ही, जैसे | मकड़ी अपने ही भीतर से जाला बुनती है। वह मकड़ी का उतना ही हिस्सा है।
सृष्टि भगवान से कुछ अलग है। क्योंकि उससे अलग कुछ है नहीं, जिसको वह बना दे, और जिसके आधार पर सृष्टि खड़ी कर दे। सृष्टि उसके ही भीतर से फैलाव है । तो सृष्टि स्रष्टा का हिस्सा है। और एक पत्थर भी जो रास्ते के किनारे पड़ा है, वह उतना ही भगवान है, जितना बनाने वाला भगवान हो। जो बनाया गया है, वह भी भगवान है। जो बनाने वाला है, वह भी भगवान है। और यह बनाने वाला, और बनाया गया का जो शब्द है हमारा, यह