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ॐ शस्त्रधारियों में राम -
से सब जान लिया जाता है। श्वेतकेतु वापस लौट गया। | है। और पूरब ने आत्म-ज्ञान विकसित कर लिया और आज पूरब
ब्रह्म-विद्या का अर्थ वह विद्या है, जिससे हम उसे जानते हैं, जो को लग रहा है कि हमसे ज्यादा दीन और दरिद्र और भुखमरा दुनिया सब जानता है। गणित आप जिससे जानते हैं, फिजिक्स आप | में कोई भी नहीं है। जिससे जानते हैं, केमिस्ट्री आप जिससे जानते हैं, उस तत्व को ही | हमने एक अति कर ली, परम विद्या पर हमने सब लगा दिया जान लेना ब्रह्म-विद्या है। जानने वाले को जान लेना ब्रह्म-विद्या है। | दांव। उन्होंने दूसरी अति कर ली। उन्होंने आत्म-विद्या को छोड़कर ज्ञान के स्रोत को ही जान लेना ब्रह्म-विद्या है। भीतर जहां चेतना बाकी सब विद्याओं पर दांव लगा दिया। बड़ी उलटी बात है। वे का केंद्र है, जहां से मैं जानता हूं आपको, जहां से मैं देखता हूं | आत्म-अज्ञान से पीड़ित हैं और हम शारीरिक दीनता और दरिद्रता आपको; जिससे मैं देखता हूं, उसे भी देख लेना, उसे भी जान से पीड़ित हैं। लेना. उसे भी पहचान लेना, उसकी प्रत्यभिज्ञा. उसका पनर्मरण ___ यह जो परम विद्या है, इस परम विद्या और सारी विद्याओं का ब्रह्म-विद्या है।
जब संतुलन हो, तो पूर्ण संस्कृति विकसित होती है। इसलिए न तो कृष्ण कहते हैं, विद्याओं में मैं ब्रह्म-विद्या हूं।
पूरब और न पश्चिम ही पूर्ण संस्कृतियां विकसित कर पाए। फिर इसलिए भारत ने फिर बाकी विद्याओं की बहुत फिक्र नहीं की। भी अगर चुनाव करना हो, अगर फिर भी चुनाव करना हो, तो परम भारत के और विद्याओं में पिछड़े जाने का बुनियादी कारण यही | विद्या ही चुनने जैसी है, सारी विद्याएं छोड़ी जा सकती हैं। क्योंकि है। भारत ने फिर और विद्याओं की फिक्र नहीं की, ब्रह्म-विद्या की | और सब पाकर कुछ भी पाने जैसा नहीं है। फिक्र की।
कृष्ण कहते हैं, मैं परम विद्या हूं सब विद्याओं में। लेकिन उसमें अड़चन है, क्योंकि ब्रह्म-विद्या जानने को कभी लेकिन यह बात आप ध्यान रखना, और विद्याओं का वे निषेध लाखों-करोड़ों में एक आदमी उत्सुक होता है। पूरा देश ब्रह्म-विद्या | नहीं करते हैं, और विद्याओं में जो श्रेष्ठ है, उसकी सूचना भर दे रहे जानने को उत्सुक नहीं होता। और भारत के जो श्रेष्ठतम मनीषी थे, | हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि सिर्फ अध्यात्म-विद्या को खोजना है, वे ब्रह्म-विद्या में उत्सुक थे। और भारत का जो सामान्यजन था, | बाकी सब छोड़ देना है। उसकी कोई उत्सुकता ब्रह्म-विद्या में नहीं थी। उसकी उत्सुकता तो यह भी सोचने जैसा है कि अध्यात्म-विद्या परम विद्या तभी हो
और विद्याओं में थी। लेकिन सामान्यजन और विद्याओं को सकती है, जब दूसरी विद्याएं भी हों। नहीं तो वह परम विद्या नहीं विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते हैं, और रह जाएगी। आप कोई मंदिर का अकेला सोने का शिखर बना लें परम मनीषी उन विद्याओं में उत्सुक ही न थे।
और दीवालें न हों, तो समझ लेना कि शिखर जमीन में पड़ा हुआ __ इसलिए भारत ने बुद्ध को जाना, महावीर को, कृष्ण को, | लोगों के पैरों की ठोकर खाएगा। मंदिर का स्वर्ण-शिखर आकाश पतंजलि को, कपिल को, नागार्जुन को, वसुबंधु को, शंकर को | | में उठता ही इसलिए है कि पत्थर की दीवालें उसे सम्हालती हैं। जाना भारत ने। ये सारे के सारे, इनमें से कोई भी आइंस्टीन हो | | अध्यात्म-विद्या का शिखर भी तभी सम्हलता है, जब और सारी सकता है। इनमें से कोई भी प्लांक हो सकता है। इनमें से कोई भी विद्याएं दीवालें बन जाती हैं और उसे सम्हालती हैं। किसी भी विद्या में प्रवेश कर सकता है। लेकिन भारत का जो अब तक हम कहीं भी मंदिर नहीं बना पाए। हमने शिखर बना श्रेष्ठतम मनीषी था, वह परम विद्या में उत्सुक था। और भारत का लिया, पश्चिम ने मंदिर बना लिया। जब तक हमारा शिखर जो सामान्यजन था, उसकी तो परम विद्या में क्या उत्सुकता हो | पश्चिम के मंदिर पर न चढ़े, तब तक दुनिया में पूर्ण संस्कृति पैदा सकती है। उसकी उत्सुकता दूसरी विद्याओं में है। लेकिन वह | नहीं हो सकती। विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते हैं। । __ और अंतिम बात।
पश्चिम में दूसरी विद्याएं विकसित हो सकीं, क्योंकि पश्चिम के - कृष्ण ने कहा, एवं परस्पर विवाद करने वालों में तत्व-निर्णय के जो बड़े मनीषी हैं, वे और विद्याओं में उत्सुक हैं। इसलिए एक | | लिए किया जाने वाला वाद, तर्क, न्याय मैं हूं। अदभुत घटना घटी। पश्चिम ने सब विद्याएं विकसित कर ली और तर्क दो तरह के हैं। एक तो तर्क है, जिसमें हम दूसरे को गलत आज पश्चिम को लग रहा है कि वह आत्म-अज्ञान से भरा हुआ सिद्ध करना चाहते हैं। वह क्या कह रहा है, उससे कोई संबंध नहीं
1911