SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 8 गीता दर्शन भाग-568 छोटी-सी सीमा के भीतर सुनते हैं। उससे नीची आवाज भी हमें प्रभाव को और योग-शक्ति को देख। सुनाई नहीं पड़ती। उससे ऊपर की आवाज भी हमें सुनाई नहीं कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि जो आंखें तेरे पास हैं, प्राकृत नेत्र, पड़ती। हमारी सब इंद्रियों की सीमा है, इसलिए असीम को कोई इनसे तू मुझे देखने में समर्थ नहीं है। इंद्रिय पकड़ नहीं सकती। हमारी कोई भी इंद्रिय असीम नहीं है। निश्चित ही, अर्जुन कृष्ण को देख रहा था, नहीं तो बात किससे हमारा जीवन ही सीमित है। होती! यह चर्चा हो रही थी। कृष्ण को सुन रहा था, नहीं तो यह थोड़ा कभी आपने खयाल किया कि आपका जीवन कितना चर्चा किससे होती! सीमित है। घर में थर्मामीटर होगा, उसमें आप ठीक से देख लेना, यहां ध्यान रखें कि एक तो वे कृष्ण हैं, जो अर्जुन को अभी उसमें सीमा पता चल जाएगी! इधर अट्ठानबे डिग्री के नीचे गिरे, दिखाई पड़ रहे हैं, इन प्राकृत आंखों से। और एक और कृष्ण का कि बिखरे। उधर एक सौ आठ-दस डिग्री के पार जाने लगे, कि होना है, जिसके लिए कृष्ण कहते हैं, तू मुझे न देख सकेगा इन गए। बारह डिग्री थर्मामीटर में आपका जीवन है। उसके नीचे मौत, आंखों से। उसके उस तरफ मौत। तो जिन्होंने कृष्ण को प्राकृत आंखों से देखा है, वे इस भ्रांति में बारह डिग्री में जहां जीवन हो, वहां परम जीवन को जानना बड़ा न पड़ें कि उन्होंने कृष्ण को देख लिया। अभी तक अर्जुन ने भी नहीं मुश्किल होगा। इस सीमित जीवन से उस असीम को हम कैसे जान | देखा है। उनके साथ रहा है। दोस्ती है। मित्रता है। पुराने संबंध हैं। पाएं! जरा-सा तापमान गिर जाए पृथ्वी पर सूरज का, हम सब | नाता है। अभी उसने कृष्ण को नहीं देखा है। अभी उसने जिसे देखा समाप्त हो जाएंगे। जरा-सा तापमान बढ़ जाए, हम सब वाष्पीभूत | है, वह इन आंखों, प्राकृत आंखों और अनुभव के भीतर जो देखा हो जाएंगे। हमारा होना कितनी छोटी-सी सीमा में, क्षुद्र सीमा में जा सकता है, वही। अभी उसने कृष्ण की छाया देखी है। अभी है! इस छोटे-से क्षुद्र होने से हम जीवन के विराट अस्तित्व को उसने कृष्ण को नहीं देखा। अभी उसने जो देखा है, वह मूल नहीं जानने चलते हैं, और कभी नहीं सोचते कि हमारे पास उपकरण | देखा, ओरिजिनल नहीं देखा, अभी प्रतिलिपि देखी है। जैसे कि क्या है जिससे हम नापेंगे! | दर्पण में आपकी छवि बने, और कोई उस छवि को देखे। जैसे कोई तो जो कह देता है बिना समझे-बूझे कि ईश्वर है, वह भी | आपका चित्र देखे। या पानी में आपका प्रतिबिंब बने और कोई उस नासमझ; जो कह देता है बिना समझे-बूझे कि ईश्वर नहीं है, वह | प्रतिबिंब को देखे। भी नासमझ। समझदार तो वह है, जो सोचे पहले कि ईश्वर का ___ पानी में प्रतिबिंब बनता है, ऐसे ही ठीक प्रकृति में भी आत्मा की अर्थ क्या होता है? विराट! अनंत! असीम! मेरी क्या स्थिति है? प्रतिछवि बनती है। अभी अर्जुन जिसे देख रहा है, वह कृष्ण की इस मेरी स्थिति में और उस विराट में क्या कोई संबंध बन सकता प्रतिछवि है, सिर्फ छाया है। अभी उसने उसे नहीं देखा, जो कृष्ण है? अगर नहीं बन सकता, तो विराट की फिक्र छोडूं। मेरी स्थिति | हैं। और आपने भी अभी अपने को जितना देखा है, वह भी आपकी में कोई परिवर्तन करूं, जिससे संबंध बन सके। छाया है। अभी आपने उसे भी नहीं देखा, जो आप हैं। धर्म और दर्शन में यही फर्क है। दर्शन सोचता है ईश्वर के संबंध और अगर अर्जुन कृष्ण के मूल को देखने में समर्थ हो जाए, तो में। धर्म खोजता है स्वयं को, कि मेरे भीतर क्या कोई उपाय है? | | अपने मूल को भी देखने में समर्थ हो जाएगा। क्योंकि मूल को क्या मेरे भीतर ऐसा कोई झरोखा है? क्या मेरे भीतर ऐसी कोई | | देखने की आंख एक ही है, चाहे कृष्ण के मूल को देखना हो और स्थिति है, जहां से मैं छलांग लगा सकू अनंत में? जहां मेरी सीमाएं | चाहे अपने मूल को देखना हो। और छाया को देखने वाली आंख मुझे रोकें नहीं। जहां मेरे बंधन मुझे बांधे नहीं। जहां मेरा भौतिक | भी एक ही है, चाहे कृष्ण की छाया देखनी हो और चाहे अपनी अस्तित्व रुकावट न हो। जहां से मैं छलांग ले सकू, और विराट में | छाया देखनी हो। कूद जाऊं और जान सकूँ कि वह क्या है। तो यहां कुछ बातें ध्यान में ले लें। अब हम इस सूत्र को समझने की कोशिश करें। पहली, कि कृष्ण जो दिखाई पड़ते हैं, अर्जुन को दिखाई पड़ते परंतु मेरे को इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने को तू निःसंदेह थे, आपको मूर्ति में दिखाई पड़ते हैं...। समर्थ नहीं है, इसी से मैं तेरे लिए दिव्य-चक्षु देता हूं, उससे तू मेरे । अब थोड़ा समझें कि आपकी मूर्ति तो प्रतिछवि की भी प्रतिछवि 268
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy