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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-58 श्रीमद्भगवद्गीता हे भरतवंशी अर्जुन, मेरे में आदित्यों को अर्थात अदिति के अथ एकादशोऽध्यायः द्वादश पुत्रों को और आठ वसुओं को, एकादश रुद्रों को तथा दोनों अश्विनी कुमारों को और उनचास मरुदगणों को देख अर्जुन उवाच तथा और भी बहुत-से पहले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् । को देख। यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ।।१।। और हे अर्जुन, अब इस मेरे शरीर में एक जगह स्थित हुए भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया। चराचर सहित संपूर्ण जगत को देख तथा और भी जो कुछ त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ।। २।। देखना चाहता है, सो देख। एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर। द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ।। ३ ।। मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो। OT ध्यात्म की अत्यधिक उलझी हुई पहेलियों में एक योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ।। ४।। 1 पहेली से ये सूत्र शुरू होते हैं। वह पहेली है कि प्रभु श्रीभगवानुवाच बिना श्रम किए मिलता नहीं। और साथ ही जब पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः। मिलता है, तो जिसे मिलता है, उसे लगता है कि मेरे श्रम का फल नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ।। ५।। नहीं, प्रभु की अनुकंपा है। जो उसे पा लेता है, वह जानता है कि पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।। | जो मैंने किया था, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। और जो मैंने पाया बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ।।६।। है. वह सभी मल्यों के अतीत है। जिसे मिलता है. वह समझ पाता इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।। है कि यह प्रसाद है, ग्रेस है, अनुग्रह है। लेकिन जिसे नहीं मिला मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्रष्टुमिच्छसि ।। ७ ।। है, अगर वह यह समझ ले कि प्रभु प्रसाद से मिलता है, मुझे कुछ इस प्रकार श्रीकृष्ण के विभूति-योग पर कहे गए वचन भी नहीं करना, तो उसे प्रसाद भी कभी नहीं मिलेगा। सुनकर अर्जुन बोला, हे भगवन्, मुझ पर अनुग्रह करने के मनुष्य श्रम करे; श्रम से परमात्मा नहीं मिलता; लेकिन मनुष्य लिए परम गोपनीय अध्यात्म-विषयक वचन अर्थात उपदेश इस योग्य हो पाता है कि प्रसाद की वर्षा उसे मिल पाती है। झील, आपके द्वारा जो कहा गया, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गड्डा, वर्षा को पैदा करने का कारण नहीं है। लेकिन वर्षा हो, तो गया है। | गड्ढे में भर जाती है और झील उपलब्ध होती है। वर्षा पहाड़ पर भी क्योंकि हे कमलनेत्र, मैंने भूतों की उत्पत्ति और प्रलय होती है, लेकिन पहाड़ के शिखर रूखे के रूखे रह जाते हैं। वर्षा आपसे विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपका अविनाशी प्रभाव | गड्डे पर भी होती है, लेकिन गड्ढा भर जाता है, आपूरित हो जाता है। भी सुना है। गड्ढे के किसी श्रम से नहीं होती है वर्षा, लेकिन गड्ढे का इतना श्रम हे परमेश्वर, आप अपने को जैसा कहते हो, यह ठीक ऐसा जरूरी है कि वह गड्डा बन जाए। ही है। परंतु हे पुरुषोत्तम, आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल्ल, ___ कोई श्रम करके सत्य को नहीं पा सकता। क्योंकि सत्य इतना वीर्य और तेजयुक्त रूप को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं। | विराट है और हमारा श्रम इतना क्षुद्र कि हम उसे श्रम से न पा इसलिए हे प्रभो, मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना। सकेंगे। और खयाल रहे कि जो हमारे श्रम से मिलेगा, वह हमसे शक्य है, ऐसा यदि मानते हैं, तो हे योगेश्वर, आप अपने | छोटा होगा, हमसे बड़ा नहीं हो सकता। जिसे मेरे हाथ गढ़ लेते हैं, अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइए। | वह मेरे हाथों से बड़ा नहीं होगा। और जिसे मेरा मन समझ लेता इस प्रकार अर्जुन के प्रार्थना करने पर श्रीकृष्ण भगवान | है, वह भी मेरे मन से बड़ा नहीं हो सकता। जिसे मैं पा लेता हूं, बोले,हे पार्थ, मेरे सैकड़ों तथा हजारों नाना प्रकार के और वह मुझसे छोटा हो जाता है। नाना वर्ण तथा आकृति वाले अलौकिक रूपों को देख। | इसलिए श्रम से न कभी कोई सत्य को पाता है, न कभी कोई 2481
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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