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________________ मंजिल है स्वयं में होता है, विस्तार । ब्रह्म का अर्थ है, जो विस्तीर्ण है, जो फैलता ही चला गया है, जिसका ओर-छोर नहीं है। तो जिस दिन आपकी चर्या उस विस्तार की तरफ बढ़ने लगती है, और आपके भीतर कुछ फैलता चला जाता है और फैलता ही चला जाता है, सब सीमाएं छूट जाती हैं और आपके भीतर कोई फैलता ही चला जाता है, जिस दिन आपके भीतर चांद - सूरज घूमने लगते हैं, जिस दिन आपको लगता है कि आप फैल गए सारे आकाश में और आकाश से एक हो गए, उस दिन ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। लेकिन यह होगा, जब हमारी ऊर्जा, हमारी शक्ति निरंतर श्रेष्ठ के प्रति समर्पित हो रही हो। अपने से नीचे का कुछ खोजना, कांति को खोना है। अपने से ऊपर के लिए शक्ति को नियोजित करना, कांति को उपलब्ध होना है। कांति सिर्फ एक खबर है, आपके चेहरे सें, आपकी आंखों से, आपके हाथों से, आपके व्यक्तित्व से, एक खबर है कि भीतर ऊर्जा ने कुछ ऊर्ध्वगमन शुरू किया है। बड़ी मुश्किल की बात है। इस कांति की तरफ खयाल ही नहीं है। इसलिए जवान आदमी...। मैंने कहा, बच्चा होता है शक्तिशाली, बूढ़ा होता है ऐश्वर्ययुक्त, जवान हो सकता है कांतियुक्त । बच्चा शक्तिशाली होता है, यह नैसर्गिक है। जवान कांतियुक्त हो, यह चुनाव है। और जवान अगर कांतियुक्त न हो सके, तो बुढ़ापा एक दीनता होगी, एक दरिद्रता होगी, एक बोझ । हम इस मुल्क में पच्चीस वर्ष तक युवकों को आश्रमों में रखकर कांति की कला सिखाते थे। इसके पहले कि शक्ति क्षीण होनी शुरू हो जाए, उसको रूपांतरण देना जरूरी है। इसके पहले कि शक्ति नीचे से बहनी शुरू हो जाए, उसके पहले उसे ऊपर के मार्ग पर चला देना जरूरी है। क्योंकि एक बार शक्ति नीचे की तरफ बहने लगे, तो हर चीज हैबिट फार्मिंग है, हर चीज की आदत बन जाती है। फिर रिपिटीटिव, फिर पुनरुक्ति होने लगती है। और जीवन एक ऐसी बाल्टी की तरह हो जाता है, जिसे हम पानी में डालते हैं भरने के लिए, लेकिन उसमें इतने छेद होते हैं कि शोरगुल बहुत होता है, पानी भरता भी मालूम पड़ता है, लेकिन आखिर में जब बाल्टी बुढ़ापे में हमारे हाथ आती है, तो उसमें कुछ भी नहीं होता, एक बूंद भी पानी की नहीं होती; सब बीच में गिर गया होता है। बुढ़ापे में जिस व्यक्ति की कुएं की बाल्टी भरी हुई आ जाए, समझना कि ऐश्वर्य उपलब्ध हुआ । लेकिन यह तभी संभव होगा, जब जवानी में छिद्र व्यक्तित्व में पैदा न हों, और जवानी में छिद्रों बचा जा सके, जो कि अति कठिन है। क्योंकि शक्ति अगर ऊपर रूपांतरित न हो, तो शक्ति बोझ बन जाती है, उसको फेंकना जरूरी हो जाता है। इसलिए पश्चिम में एक नया विचार लोगों को पकड़ा है और वह | यह है कि सेक्स इज़ जस्ट ए रिलीज, ए रिलीफ । कामवासना, सिर्फ एक शक्ति भारी हो जाती है, तनाव हो जाता है, उससे छुटकारा है। पश्चिम में एक बहुत क्षुद्र खयाल काम-ऊर्जा के बाबत आया है। वे कहते हैं, काम-ऊर्जा छींक जैसी है। छींक ली, तो राहत मिलती है। छींक आ गई, तो राहत मिलती है। नहीं तो नाक में सनसनाहट और तकलीफ मालूम पड़ती है । सब काम - ऊर्जा भी इसी तरह की है । उसको फेंक दी बाहर, तो राहत मिलती है। शक्ति भारी हो जाती है, अगर काम में न लाई जाए, फिर उसे फेंकना ही पड़ेगा। केवल वे ही लोग शक्ति को फेंकने से बच सकते हैं, जो उस कला को सीख लेते हैं, जिसमें शक्ति रोज काम में आती चली जाती है, बचती ही नहीं फेंकने के लिए। डायोजनीज से किसी ने पूछा था कि तुमने विवाह क्यों न किया ? तो डायोजनीज ने कहा, दो पत्नियां एक साथ रखना बहुत मुश्किल होगा। जिसने पूछा था, वह तो पूछ रहा था, विवाह क्यों न किया ? | वह बड़ा हैरान हुआ कि दो पत्नियां हैं तुम्हारी ! डायोजनीज ने कहा, नहीं, जिस दिन से परमात्मा को खोजने में लग गए, उस दिन से सारी शक्ति तो उसी में लग गई, अब दूसरी पत्नी रखना बहुत मुश्किल होगा। ये दोनों बातें एक साथ करना जरा मुश्किल होगा। सारी शक्ति लग जाए एक तरफ, तो दूसरी तरफ प्रवाहित रहने को कुछ बचता नहीं। और तभी कांति उपलब्ध होती है, जब ऊपर की ओर शक्ति उठने लगे। 241 कांति का अर्थ है, ऊपर की ओर उठती हुई शक्ति। शरीर से भी झलकने लगती है। शरीर से भी उसकी सुगंध आने लगती है । शरीर भी एक अनूठे सौंदर्य से आच्छादित हो जाता है। ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त, शक्तियुक्त जो भी है, वहीं मेरी विभूति है, वहीं मैं प्रकट हुआ हूं, वहीं तू मुझे देख लेना। और जहां भी यह घटित हो, समझना कि मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ है; मेरी ही ज्योति वहां प्रज्वलित हो रही है; मेरे ही अमृत की धार वहां बहती है; मेरे ही स्वरों का संगीत है वहां ; मेरी ही सुवास है; मेरे ही हृदय की धड़कन वहां भी धड़कती है। अथवा हे अर्जुन, इस बहुत जानने से तेरा प्रयोजन ही क्या है ! अगर तू मुझे ऐश्वर्य में भी न देख सके, कांति में भी न देख
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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