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________________ गीता दर्शन भाग-588 लेकिन पश्चिम का अनुभव नया है अभी। पश्चिम पहली दफा | उस आदमी से पूछा गया कि क्यों उसने तोड़ दिया? तो उसने कहा समृद्ध हुआ है। और समृद्ध होकर उसने भीतर की दरिद्रता जानी कि मुझे तोड़ने में बहुत आनंद आया। अगर मेरी जान भी ले ली है। और समृद्ध होकर उसे पता चला कि कितनी ही समृद्धि हो जाए अब इसके बदले में, तो मुझे कोई चिंता नहीं है। जाए, भीतर की दरिद्रता उससे घटती नहीं, बल्कि बढ़ जाती है। । जीसस की मूर्ति तोड़ने में। मूर्ति तोड़ने में क्या आनंद मिला होगा? पूरब बहुत बार समृद्ध हो चुका है। पूरब बहुत बार यह अनुभव | | लेकिन उस मूर्ति को लाखों लोग प्रेम करते थे। वह अपने तरह की कर चुका है कि सब मिल जाए, जब तक आत्मा न मिले, तब तक अनूठी मूर्ति थी। उस मूर्ति को तोड़कर उसने करोड़ों लोगों के हृदय सब मिलना व्यर्थ है। आज जहां पश्चिम खड़ा है, पूरब बहुत बार को तोड़ने की कोशिश की है। यह कहता है, इसे आनंद मिला! इस जगह खड़ा हो चुका है। पूरब की कथा बहुत पुरानी है। अगर आज हम पश्चिम में देखें, तो विनाश का आनंद बढ़ता , गीता जिस क्षण घटित हुई होगी, उस क्षण पूरब करीब-करीब जाता है। विनाश रुचिकर, आनंदपूर्ण मालूम हो रहा है। सैकड़ों उसी विज्ञान के शिखर पर था, जहां आज पश्चिम है। क्योंकि हत्याएं हो रही हैं, सिर्फ इसलिए कि हत्या करने में लोगों को मजा महाभारत में जिन अस्त्र-शस्त्रों की चर्चा है. उन अस्त्र-शस्त्रों को आ रहा है। सैकड़ों लोग आत्मघात कर रहे हैं. सिर्फ इसलिए कि हम आज पहली दफे समझ सकते हैं कि वे क्या रहे होंगे। क्योंकि | मिटाने का एक रस; एक थ्रिल तोड़ देने की, समाप्त कर देने की। हमें आज हाइड्रोजन और एटम बम की प्रक्रिया पता है। आज हम सार्च ने कहा है, आदमी जन्म होने के लिए तो स्वतंत्र नहीं है, पहली दफा समझ सकते हैं कि महाभारत में जो घटित हुआ होगा, | | लेकिन अपने को मार डालने के लिए तो स्वतंत्र है। वह क्या था, और आदमी ने क्या खोज लिया था। आज हमने फिर तो जब कोई अपने को मारता है, तो स्वतंत्रता का अनुभव होता पश्चिम में उसे खोज लिया है। उस समृद्धि के शिखर पर खड़े | है। पैदा आप हो गए, आपसे कोई पूछता नहीं। आपकी कोई राय होकर महाभारत घटित हुआ। नहीं ली जाती। आप पाते हैं कि आप पैदा हो गए, बिना आपकी जब भी समृद्धि बहुत बढ़ जाती है, तो युद्ध अनिवार्य हो जाता | मर्जी के। यह परतंत्रता है निश्चित ही। स्वतंत्रता कहां है फिर? है। उसके कारण हैं। क्योंकि जितना ही आदमी बाहर समृद्ध हो सार्च को मानने वाला वर्ग कहता है कि स्युसाइड, आत्महत्या जाता है. भीतर दरिद्र हो जाता है। और जितना ही भीतर दरिद्र हो। में ही स्वतंत्रता मालूम पड़ती है; बाकी कुछ भी करो, परतंत्रता जाता है, घृणा, वैमनस्य, क्रोध उसमें बढ़ जाते हैं। प्रेम, करुणा, | मालूम पड़ती है। एक चीज कम से कम आदमी कर सकता है; दया, ममता कम हो जाती है। प्रेम और करुणा और दया और ममता | अपने को मिटा सकता है। और मिटाकर अनुभव कर सकता है तो भीतर की समृद्धि के लक्षण हैं। जब भीतर आदमी दरिद्र होता कि मैं स्वतंत्र हूं। है, तो हिंसा बढ़ जाती है। जब भी आदमी भीतर दरिद्र होगा, तो अगर विध्वंस स्वतंत्रता बन जाए और आत्मघात स्वतंत्रता बन हिंसा बढ़ेगी। हिंसा का अंतिम परिणाम युद्ध होगा, विनाश होगा। | जाए, तो सोचना पड़ेगा कि आदमी भीतर गहन रूप से रुग्ण और समृद्धि शिखर पर थी, आदमी भीतर दरिद्र था। वह आदमी बीमार हो गया है, विक्षिप्त और पागल हो गया है। भीतर जो दरिद्र था, वह हिंसा के लिए तत्पर था। आज वियतनाम में जो हो रहा है, बिलकुल अकारण है। कोई भी आज पश्चिम पूरी तरह उसी हालत में है, जहां महाभारत के | कारण नहीं सूझता कि वियतनाम में क्यों आदमी की हत्या जारी रखी समय पूरब था। और कुछ आश्चर्य न होगा कि पश्चिम को तीसरे | जाए। न अमेरिका को विजय से कोई प्रयोजन है कि वियतनाम की महायुद्ध से न बचाया जा सके। कोई आश्चर्य न होगा। बहुत विजय कोई अमेरिका में चार चांद जोड़ देगी। वियतनाम का कोई संभावना तो यह है कि पश्चिम विनाश को करके ही रुकेगा। | मूल्य भी नहीं है अमेरिका के लिए। पर यह युद्ध क्यों जारी है? आदमी भीतर दरिद्र है, दीन है, हिंसा, क्रोध से भरा है, विनाश से | विध्वंस अपने आप में सुख दे रहा है। अकारण! अब कोई भरा है। आवश्यकता नहीं कि कोई कारण हो। अभी रोम में एक पागल आदमी ने, कुछ दिन पहले, आपने जैसे एक मूर्तिकार मूर्ति बनाता है। हम उससे पूछे, क्यों बना रहा खबर पढ़ी होगी, जीसस की एक मूर्ति को जाकर तोड़ दिया। अब है? तो वह कहता है, बनाने में आनंद है। एक चित्रकार चित्र बनाता जीसस की मूर्ति को तोड़ देने का कोई भी प्रयोजन नहीं है। और जब है। हम उससे पूछे, क्यों? तो वह कहता है, निर्मित करने में आनंद 332
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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