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गीता दर्शन भाग-5
सहज ही चारों तरफ इतनी विराट शक्तियां थीं कि हम निहत्थे, असहाय, हेल्पलेस मालूम होते थे। बाहर तो हमारे बल को बढ़ने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता था। इसलिए आदमी भीतर मुड़ने की चेष्टा करता था।
आज बाहर के यात्रा-पथ इतने सुगम हैं भीतर लौटने का खयाल भी नहीं आता है। आज बाहर जाने की इतनी सुविधा है कि भीतर जाने का सवाल भी नहीं उठता है। आज जब हम किसी से कहें, भीतर जाओ, तो उसकी समझ में नहीं आता। उससे कहें, चांद पर जाओ, मंगल पर जाओ, बिलकुल समझ में आता है।
चांद पर जाना आज आसान है, अपने भीतर जाना कठिन है। और आदमी निश्चित ही, जो सुगम है, सरल है, उसको चुन लेता है। जहां लीस्ट रेजिस्टेंस है, उसे चुन लेता है।
आदमी के अहंकार के अनुपात में उसकी नास्तिकता होती है। जितना अहंकार होता है, उतनी नास्तिकता होती है । क्यों ? क्योंकि आस्तिकता पहली स्वीकृति से शुरू होती है कि मैं अधूरा हूं । ईश्वर है या नहीं, मुझे पता नहीं। लेकिन परम सत्य को जानने का मेरे पास कोई भी उपाय नहीं है।
गणित के भीतर आ सकता है, बुद्धि समझ सकती है। जो भी तर्क के भीतर आ जाता है, बुद्धि समझ सकती है।
विज्ञान बुद्धि का विस्तार है । इसलिए विज्ञान उसी को मानता है, जो नप सके, जांचा जा सके, परखा जा सके, छुआ जा सके, | प्रयोग किया जा सके, उसको ही। जो न छुआ जा सके, न परखा जा सके, न पकड़ा जा सके, न तौला जा सके, विज्ञान कहता है, वह है ही नहीं।
समझें। एक तराजू है। उससे हम उसी चीज को जांच सकते हैं, जो नापी जा सकती है। एक तराजू को लेकर हम एक आदमी के शरीर को नाप सकते हैं। लेकिन अगर तराजू से हम आदमी के मन को जानने चलें, तो मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि मन तराजू पर नहीं नापा जा सकता। एक आदमी के शरीर में कितनी हड्डियां, मांस-मज्जा है, यह हम नाप सकते हैं तराजू से। लेकिन एक आदमी के भीतर कितना प्रेम है, कितनी घृणा है, इसको हम तराजू से नहीं नाप सकते। इसका यह मतलब नहीं कि प्रेम है नहीं। इसका केवल इतना ही मतलब है कि जो मापने का उपकरण है, वह संगत नहीं है।
जो भी नापा जा सकता है, उसे बुद्धि समझ सकती है। जो भी
वहां विज्ञान भूल करता है। विज्ञान को इतना ही कहना चाहिए कि उस दिशा में हमारे पास जाने का कोई उपाय नहीं है। हो भी सकता है, न भी हो, लेकिन बिना उपाय के कुछ भी कहा नहीं जा |सकता है।
परमात्मा का अर्थ है, असीम । परमात्मा का अर्थ है, सब । परमात्मा का अर्थ है, जो भी है, उसका जोड़।
इस विराट को बुद्धि नहीं नाप पाती। क्योंकि बुद्धि भी इस विराट का एक अंग है। बुद्धि भी इस विराट का एक अंश है। अंश कभी | भी पूर्ण को नहीं जांच सकता । अंश कभी भी अपने पूर्ण को नहीं पकड़ सकता। कैसे पकड़ेगा ?
अगर बुद्धि आदमी के पास है। लेकिन बुद्धि से आदमी क्या जान पाता है ? जो नापा जा सकता है, वह बुद्धि से जाना जा सकता है। क्योंकि बुद्धि नापने की एक व्यवस्था है । जो मेजरमेंट के भीतर आ सकता है, वह बुद्धि से जाना जा सकता है।
हमारा शब्द है, माया। माया बहुत अदभुत शब्द है । उसका मौलिक अर्थ होता है, दैट व्हिच कैन बी मेजर्ड, जिसको नापा जा सके; माप्य जो है; जिसको हम नाप सकें। तो बुद्धि केवल माया कोही जान सकती है, जो नापा जा सकता है।
अपने हाथ से अपने पूरे शरीर को पकड़ना चाहूं, तो कैसे पकडूंगा? कोई उपाय नहीं है । मेरा हाथ कई चीजें उठा सकता है । लेकिन मेरा हाथ मेरे पूरे शरीर को नहीं उठा सकता। अंश है, छोटा है; शरीर बड़ा है। बुद्धि एक अंश है इस विराट में। एक बूंद सागर में है, इस पूरे सागर को नहीं उठा पाती है।
तो बुद्धि उपाय नहीं है जानने का। और हम बुद्धि से ही जानने की कोशिश करते हैं । दार्शनिक सोचते हैं, मनन करते हैं, तर्क करते हैं। बुद्धि से सोचते हैं कि ईश्वर है या नहीं । वे जो भी दलीलें देते
वे दलीलें बचकानी हैं। बड़े से बड़े दार्शनिक ने भी ईश्वर के होने के लिए जो प्रमाण दिए हैं, वह बच्चा भी तोड़ सकता है। जितने | भी प्रमाण ईश्वर के होने के लिए दिए गए हैं, वे कोई भी प्रमाण नहीं हैं। क्योंकि उन सभी को खंडित किया जा सकता है। इसलिए प्रमाण से जो ईश्वर को मानता है, उसे कोई भी नास्तिक दो क्षण में मिट्टी में मिला देगा |
ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है, जो ईश्वर के होने को सिद्ध कर सके। क्योंकि अगर हमारा प्रमाण ईश्वर को सिद्ध कर सके, तो हम ईश्वर से भी बड़े हो जाते हैं। और हमारी बुद्धि अगर ईश्वर के लिए प्रमाण जुटा सके और अगर ईश्वर को हमारे प्रमाणों की जरूरत हो, तभी वह हो सके, और हमारे प्रमाण न हों तो वह न हो सके,
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