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________________ गीता दर्शन भाग-58 स्वप्न है, तो किसको आ रहा है! और स्वप्न है, तो ब्रह्म से स्वप्न | चौंककर आपको खयाल हुआ हो कि मैं कौन हूं? कहां खड़ा हूं? का क्या संबंध है! यह स्वप्न ब्रह्म को आ रहा है कि आत्मा को आ क्या है मेरे चारों तरफ? रहा है! अगर ब्रह्म को आ रहा है, तो फिर यह वास्तविक हो गया। __अगर ऐसा कोई क्षण आपको आ जाए, तो समझना कि उसके और अगर आत्मा को आ रहा है, तो यह आत्मा को शुरुआत इसकी बाद अथातो ब्रह्म जिज्ञासा, उस क्षण के बाद ब्रह्म-सत्र शरू होता कैसे हुई? लोग इसकी चर्चा में लग जाते हैं! है। लेकिन वह क्षण हमें आता ही नहीं। हमें सब पता है कि मैं कौन अगर शंकर हों, तो वे अपना सिर पीटें। उन्होंने कहा था कि थोड़ी हूं। नाम का पता है। पते का पता है। अपने घर का, बैंक बैलेंस देर के लिए तुम अपने इस उपद्रव के प्रति आंख बंद कर सको। तो का, सब पता है। कौन कहता है कि नहीं पता है! . एक उपाय था कि तुम्हें कहा कि यह स्वप्न है। छोड़ो भी इसे। थोड़ा अर्जुन इस घड़ी में ऐसी जगह आ गया, जहां उसे कुछ भी पता और तरफ भी देखो। आंख को थोड़ा मुक्त करो यहां से। देखने की नहीं रहा। वह भल ही गया कि यद्ध होने के करीब है। थोड़ी ही देर क्षमता यहां से थोड़ी हटे, तो नई यात्रा पर निकल जाए। में शंख बजेंगे. यद्ध में कद जाना पडेगा। वह नीति-अनीति. वह और निश्चित ही, जो उस नई यात्रा पर निकल जाता है, उसे क्षुद्र सब प्रश्न, सब खो गए। अभी थोड़ी देर पहले उसे बड़े लौटकर यह जगत स्वप्न मालूम पड़ता है। लेकिन स्वप्न इसलिए महत्वपूर्ण मालूम पड़ते थे। वह मरना-जीना, अपने-पराए, वे सब मालूम पड़ता है कि अब सापेक्ष रूप से उसने जो जाना है, वह इतना | खो गए। अब उसके लिए एक ही बात महत्वपूर्ण मालूम पड़ती है, विराटतर सत्य है कि तुलना में यह बिलकुल फीका और मुर्दा हो | यह अस्तित्व क्या है? एक्झिस्टेंस, यह होना ही क्या है ? तो कृष्ण गया है। उसे ठीक यह ऐसे ही स्वप्नवत हो जाता है, जैसे आपने को कहता है, तुम भी हट जाओ। मुझे आमने-सामने सीधा हो जाने कागज के फूल देखे हों, और फिर आपको असली फूल देखने मिल | दो। मैं एक दफा सीधा ही देख लूं, क्या है। जाएं। और तब आप कहें कि ये कागज के फूल हैं। लेकिन जिन्होंने । यह योग्यता उसने अर्जित की गीता के इस क्षण तक। जब जीवन कागज के फूल ही देखे हों, उनको इसमें कुछ भी अर्थ न मालूम | की क्षुद्रता प्रश्न नहीं बनती, तभी जीवन का विराट, जिज्ञासा बनता पड़े, क्योंकि फूल का मतलब ही कागज के फूल होता है, और तो | है। जिसने हमें चारों तरफ घेर रखा है अभी और यहां, समय के घेरे फूल कोई होता नहीं! में, जब अचानक हमें उसका पता भी नहीं चलता, तो वह जो समय जिस दिन हम विराट को देख पाते हैं, उस दिन सीमित स्वप्न के पार है, हमें आच्छादित कर लेता है। जब क्षुद्र को हम भूलते हैं, जैसा फीका, मुर्दा, बेजान, अर्थहीन मालूम पड़ने लगता है। तो विराट की स्मृति आती है। रिलेटिव, वह सापेक्ष दृष्टि है। वह हमने कुछ और जान लिया। सब उपाय धर्म के क्षुद्र को भूलने के उपाय हैं। कहो उसे प्रार्थना, जैसे कोई सूरज को देख ले, फिर घर में लौटकर मिट्टी के दीए को कहो ध्यान, कहो पूजा, कहो जप; जो भी नाम देना हो, दो। लेकिन देखकर कहे कि यह बिलकुल अंधेरा है। अंधेरा है नहीं, क्योंकि क्षुद्र को भूलने के उपाय हैं। और क्षुद्र भूल जाए, तो हम उस किनारे घर में जो बैठा है, उसके लिए दीया ही सूर्य है। लेकिन जो सूरज पर खड़े हो जाते हैं, जहां से नौका विराट में छोड़ी जा सकती है। को देखकर लौटा है, उसे दीए की ज्योति दिखाई भी नहीं पड़ेगी। | थोड़ी देर को भी क्षुद्र भूल जाए, तो कुछ हो सकता है; कोई नए इतने विराट को जिसने जाना है, दीए की ज्योति अब उसकी आंखों | तल पर हमारा होना, कोई नई दृष्टि, कोई नया हृदय हम में धड़क में कहीं पकड़ में नहीं आएगी। वह कहेगा, दीया यहां है ही नहीं। सकता है। कोई नया स्वर, जो भीतर निरंतर बजता रहा है; सनातन तुम अंधेरे में बैठे हो। | है। लेकिन हमारे लिए नया है, क्योंकि हम पहली दफा सुनेंगे। वह यह सूर्य की तुलना में है। सब शब्द सापेक्ष हैं। | चारों तरफ की भीड़, आवाज, शोरगुल, बंद हो जाए क्षणभर को, अर्जुन को जिस क्षण यह बाहर का सारा जगत कृष्ण की | | तो वह भीतर की धीमी-सी आवाज, सनातन आवाज, हमें सुनाई तल्लीनता में स्वप्नवत हो गया, वह भूल गया कि मैं कहां खड़ा हूं। पड़ने लगती है। कभी आप भूले हैं एकाध क्षण को कि आप कहां खड़े हैं? कभी | | अर्जुन भूल गया है। संसार का विस्मरण, युद्ध का विस्मरण, आप भले हैं. एकाध क्षण को. अपनी पत्नी को. बच्चे को. घर को. परिस्थिति का विस्मरण, उसके लिए ब्रह्म की जिज्ञासा बन गई है। दुकान को, मकान को? कभी एकाध क्षण को ऐसा हुआ है कि और कृष्ण ने उससे एक बात भी नहीं कही। कहा कि देख। 1260/
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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