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रूपांतरण का आधार-निष्कंप चित्त और जागरूकता
कृष्ण कहते हैं, सुख भी मैं और दुख भी मैं।
सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए, जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है। हम सब सोचते हैं कि परमात्मा सुख का धाम है। परम सुख | | इस सूत्र का अर्थ है कि जितने भी जानने वाले हुए हैं अब तक, अगर चाहिए, तो परमात्मा की तरफ जाओ। लेकिन कृष्ण कह रहे | | जिन्होंने भी जाना है इस सत्य को, इस जीवन को, वे भी मेरे ही हैं कि सुख भी मैं और दुख भी मैं! तो क्या वे वेदों की, उपनिषदों संकल्प थे, मेरे ही भाव थे; वे भी मुझसे अलग नहीं हैं। जिन्होंने की जो परम उक्ति है, सच्चिदानंद की, उसके खिलाफ बोल रहे हैं? भी कभी उस परम अनुभव को पाया है, चाहे वे पहले हुए
नहीं; उसके खिलाफ नहीं बोल रहे हैं। लेकिन अगर उस तक | ऋषि-महर्षि हों, चाहे मनु आदि हों, वे सब भी मेरे ही भाव की जाना हो, तो इस सूत्र को मानकर चलने वाला ही उस तक पहुंचता अवस्थाएं हैं। है, जहां परमात्मा मात्र आनंद रह जाता है। इस सूत्र को मानने __ कृष्ण यह कह रहे हैं कि इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम फूल वाला-सुख और दुख, दोनों में जो परमात्मा को देखता है, वह | खिलते हैं अनुभव के, वे सब मेरी ही सुगंध से परिव्याप्त हैं। और एक दिन परम आनंद को उपलब्ध होता है।
जब भी कोई अपनी परम दशा में पहुंचता है, तो मुझको ही उपलब्ध हम सुख में तो परमात्मा को देख सकते हैं, लेकिन दुख में! दुख | | हो जाता है। में नहीं देख सकते। और जो दुख में नहीं देख सकता, वह समता लेकिन उस परम दशा में वे ही लोग पहुंच पाते हैं, जो द्वंद्व के बीच को उपलब्ध नहीं होगा, शांति को उपलब्ध नहीं होगा। लेकिन जो | | अपने को समता में ठहरा लेते हैं। जो दो के बीच चुनाव नहीं करते, दुख में भी देख सकता है, वह समता को उपलब्ध हो जाएगा। अगर | | जो यह नहीं कहते कि हमें सुख चाहिए, दुख नहीं चाहिए। जो कहते आपको दुख में भी परमात्मा दिखाई पड़े, तो आप दुख से भागना | | हैं, दुख में भी तू है, और सुख में भी तू है। जो यह नहीं कहते कि न चाहेंगे। परमात्मा से कोई भागना चाहता है? अगर दुख में जन्म तो प्यारा है, जीवन तो प्यारा है; मृत्यु नहीं चाहिए, हमें तो अमर परमात्मा दिखाई पड़े, तो आप प्रार्थना न करेंगे कि दुख से मुझे | जीवन चाहिए। जो ऐसा नहीं कहते हैं। जो कहते हैं, मृत्यु भी तेरी, छुड़ाओ! क्योंकि परमात्मा से कोई छूटना चाहता है?
जन्म भी तेरा। दोनों हमें प्रीतिकर हैं, क्योंकि दोनों ही तेरे हैं। और जिसको दुख में भी परमात्मा दिखाई पड़ जाए, उसके लिए इस जगत में जो चुनाव नहीं करते हैं, इस जगत में जो फिर कोई दुख जगत में नहीं रह जाएगा। क्योंकि दुख का मतलब च्वाइसलेस, चुनावरहित जीने के उपक्रम में प्रवेश करते हैं, वे ही तभी तक है, जब तक हम उससे बचना चाहते हैं, भागना चाहते | सभी, चाहे किसी काल में हुए हों, वे सभी महर्षिगण, मुझको ही, हैं। जिस दिन कोई दुख को भी आलिंगन करके गले लगा ले; और मेरे ही संकल्प को, मेरे ही भाव को उपलब्ध होते हैं। कहें कि वे जिस दिन दुख को भी कोई कहे कि प्रभु आए द्वार मेरे, स्वागत है। | मेरे ही भाव के अंश हैं, वे मेरी ही लहरें हैं। लेकिन वे ऐसी लहरें उस दिन फिर कोई दुख नहीं बचेगा। और जिसके जीवन में कोई | हैं, जो मेरे सागर होने को भी अनुभव कर लेती हैं। दुख नहीं बचता, उसके जीवन में सभी कुछ सुख हो जाता है। । __ आज इतना ही। फिर कल हम बात करेंगे।
हमारे जीवन में दुख से बचने की और सुख को पकड़ने की लेकिन पांच मिनट रुकेंगे। कोई भी बीच से उठे न। पांच मिनट आकांक्षा होती है। लेकिन परिणाम क्या है? परिणाम इतना है कि | | प्रसाद लेकर जाएं। राम-नाम का प्रसाद। पांच मिनट कीर्तन में दुख ही दुख हो जाता है; सुख तो कहीं मिलता नहीं।
सम्मिलित हों। और बीच में कोई उठे न। जब कीर्तन बंद हो, तभी कृष्ण कहते हैं, सुख भी मैं, दुख भी मैं; उत्पत्ति भी मैं, प्रलय भी | | आप उठे। मैं; जन्म भी मैं, मृत्यु भी मैं। सारे द्वंद्व मैं हूं। भय भी मैं, अभय भी मैं। जहां-जहां द्वंद्व दिखाई पड़ें, दोनों में मैं ही हूं। ऐसा जो मुझे देखेगा, वह आगे के सूत्रों को समझना और आसान हो जाएगा।
तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अपकीर्ति, ऐसे ये जो नाना प्रकार के भाव प्राणियों में होते हैं, वे मेरे से ही होते हैं।
और हे अर्जुन, सात महर्षिजन, और चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायंभुव आदि चौदह मनु, ये मेरे भाव वाले सब के
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