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गीता दर्शन भाग-500
लेकिन तब बिना बनाए कोई चीज हो सकती है? बिना प्रारंभ के ईश्वर का अर्थ है, दि टोटेलिटी। इस संपूर्ण अस्तित्व का कोई चीज हो सकती है? हमारा प्रारंभ है, हमारा जन्म होता है; धार्मिक नाम ईश्वर है। विज्ञान जिसे एक्झिस्टेंस कहता है, अस्तित्व हमारी मृत्यु होती है। हम जगत में ऐसी किसी चीज को नहीं जानते, | कहता है, प्रकृति कहता है, धर्म उसे ही परमात्मा कहता है। जिसका प्रारंभ न होता हो और अंत न होता हो। सभी चीजें शुरू कृष्ण कहते हैं, जो मुझे अजन्मा, अनादि, ऐसा जानने में समर्थ होती हैं, और सभी चीजें समाप्त हो जाती हैं। आप किसी ऐसे हो जाए, वह सब पापों के पार हो जाता है। अनुभव को जानते हैं जिसका प्रारंभ न हो, अंत न हो? हमारे। लेकिन क्यों? अगर आप जान भी लें कि ईश्वर का कोई प्रारंभ अनुभव में ऐसा कोई भी अनुभव नहीं है। इसीलिए इस सूत्र को नहीं, कोई अंत नहीं, तो आप पाप के पार कैसे हो जाएंगे? यह स्वीकार करने में बुद्धि को अड़चन है, भारी अड़चन है। बहुत अजीब-सी बात है। मैं चोर हूं, मैं बेईमान हूं, मैं हत्यारा हूं।
अजन्मा, अनादि, ऐसा जो मुझे मानता है, ऐसा जो मुझे जानता | | अगर मैं यह जान भी लूं कि ईश्वर का कोई जन्म नहीं और ईश्वर है. वह मनुष्यों में ज्ञानवान है और संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। का कोई अंत नहीं, तो मैं पाप के क्यों पार हो जाऊंगा? मेरे इस जान
यह ज्ञान कुछ दूसरे ही प्रकार का ज्ञान है। जितना हम सोचेंगे, | | लेने से मेरे पाप के विसर्जन का क्या संबंध है? यह और भी जटिल जितना हम विचार करेंगे, उतना ही हमें मालम पड़ेगा कि सब चीजों | बात है। लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है। का प्रारंभ है और सब चीजों का अंत है। कहीं चीज शुरू होती है। जैसे ही मैं यह जान लूं कि ईश्वर का कोई प्रारंभ नहीं है और
और कहीं समाप्त होती है। जन्म होता है कहीं, मृत्यु होती है कहीं। ईश्वर का कोई अंत नहीं है, वैसे ही मुझे यह भी पता चल जाता है हम खुद अपने ही भीतर खोज करें, तो कुछ पता नहीं चलता कि कि मेरा भी कोई प्रारंभ नहीं है और मेरा भी कोई अंत नहीं है। वैसे जन्म के पहले भी हम थे, कि मृत्यु के बाद भी हम होंगे! ही मुझे यह भी पता चल जाता है कि आपका भी कोई प्रारंभ नहीं
झेन फकीर जापान में अपने साधकों को कहते हैं कि ध्यान करो, है, आपका भी कोई अंत नहीं है। तो मैंने जो हत्याएं की हों या मेरी और खोजो उस चेहरे को, जो जन्म के पहले तुम्हारा था, हत्या की गई हो, मैंने जो पाप किए हों या मेरे साथ पाप किए हों, ओरिजिनल फेस। जब तुम पैदा नहीं हुए थे, तब तुम्हारी शक्ल | वे सब मूल्यहीन हो जाते हैं। एक शाश्वत जगत में खेल से ज्यादा कैसी थी? या तुम जब मर जाओगे, तब तुम कैसे होओगे, इसकी | उनकी स्थिति नहीं रह जाती। एक अभिनय और एक नाटक से . तलाश करो ध्यान में!
ज्यादा उनका मूल्य नहीं रह जाता। जब भी कोई साधक अपने भीतर खोज लेता है उस सूत्र को, जो | | अगर मैं मृत्यु के बाद भी शेष रहता हूं और जन्म के पहले भी जन्म के भी पहले था या मृत्यु के भी बाद बचेगा, तभी इस सूत्र को मैं था, तो जीवन में जिन बातों का हम बहुत मूल्य मान रहे हैं, वे समझने में समर्थ हो पाता है।
मूल्यहीन हो जाती हैं। तब स्थिति केवल यह हो जाती है कि जैसे नहीं; इस अस्तित्व का न कोई प्रारंभ है, और न कोई अंत है। एक मंच पर एक नाटक चलता हो, रामलीला चलती हो, और मंच हो भी नहीं सकता। वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि हम रेत के एक के पात्र पर्दे के पीछे जाकर गपशप करते हों। यहां राम की सीता छोटे-से कण को भी नष्ट नहीं कर सकते। तोड़ सकते हैं, बदल | | खो जाती हो और राम छाती पीटते हों और वृक्षों से पूछते हों कि सकते हैं, रूप दूसरा हो सकता है, लेकिन विनाश असंभव है। और सीता कहां है! और पीछे, पर्दे के पीछे बैठकर भूल जाते हों सीता वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि हम रेत के एक छोटे-से नए कण को को, सीता के खो जाने को, आंसुओं को। क्यों? निर्मित भी नहीं कर सकते।
अगर यह मंच ही सब कुछ है और मंच के पहले राम का कोई इस जगत की जो भी गुणात्मक, परिमाणात्मक स्थिति है, वह अस्तित्व नहीं है और मंच के बाद भी राम का कोई अस्तित्व नहीं है, उतनी की उतनी ही है; उसमें रत्तीभर न कभी बढ़ता है और न कभी तो फिर बहुत कठिनाई है, फिर जिंदगी बहुत वास्तविक हो जाएगी। घटता है। क्योंकि घटने या बढ़ने का अर्थ होगा, या तो शून्य से। लेकिन मंच पर आने के पहले भी राम हैं, मंच से उतर जाने के कोई चीज पैदा हो और जगत में बढ़ जाए; घटने का अर्थ होगा, बाद भी राम हैं, तो राम होना एक पात्र, एक लीला का हिस्सा रह कोई चीज खो जाए और शून्य में लीन हो जाए। लेकिन इस जगत गया; और राम की जो सातत्यता है, जो कंटिन्युटी है, जो भीतर का के बाहर न कोई स्थिति है, न कोई स्थान है, न कोई उपाय है। | अस्तित्व है, वह अंतहीन, अनादि हो गया। उसमें न मालूम कितनी