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83 गीता दर्शन भाग-50
इसलिए हम सत्य के जानने वाले को कहते हैं, द्रष्टा। श्रोता दिन ही दर्शन की बात संभव हो सकती है। नहीं, द्रष्टा। इसलिए जिन्होंने जान लिया उनके ज्ञान को हम कहते लोग आते हैं मेरे पास। वे कहते हैं कि मन में बड़ी अशांति रहती हैं, दर्शन। श्रवण नहीं, देखा। इसलिए हम तीसरी आंख की खोज | है। मैं पूछता हूं, क्या कारण है? वे कहते हैं, नौकरी नहीं है। किसी करते हैं, तीसरे कान की नहीं। कोई तीसरा कान है ही नहीं। को बेटा नहीं है। किसी का धंधा ठीक नहीं चल रहा: मन में बड़ी
पूछते हैं जब आप, तो आप चाहते हैं, आपके कान में कुछ डाला अशांति रहती है। उनके जितने भी कारण हैं अशांति के, उनमें एक जाए। सत्य उस रास्ते नहीं आता। और ध्यान रहे, कान का अनुभव भी कारण आध्यात्मिक नहीं है। नौकरी नहीं चलती है, इसलिए सदा ही उधार होता है। सदा ही उधार है। आंख का अनुभव ही अशांति है। और आते हैं कि ध्यान से शायद शांति मिल जाए। अपना हो सकता है। जब तक सवाल हैं, तब तक आप उन लोगों अगर ध्यान से नौकरी मिलती होती, तो शांति मिल सकती थी। की तलाश कर रहे हैं, जो आपके कान को कचरे से भरते रहें। जिस ध्यान से नौकरी मिलेगी नहीं। अगर ध्यान से बच्चा पैदा हो सकता दिन आपके पास कोई सवाल नहीं है, उस दिन आप उस आदमी | था, तो शायद शांति मिल जाती। अगर बच्चे पैदा होने से शांति की खोज करेंगे, जो आपको दिखा दे।
मिलती हो तो। क्योंकि जिनको है, उनको बिलकुल नहीं है। वे तो अर्जन का यह कहना कि जो आप कहते हैं. ऐसा ही है. खबर कहते हैं, ये बच्चों की वजह से अशांति है। . देता है कि उसके सवाल गिर गए।
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, कब इस नौकरी से छुटकारा दूसरी बात। जिंदगी में एक तो हमारे रोजमर्रा की उलझनें हैं। होगा? इसकी वजह से अशांति है। रिटायर हो जाएं। विश्राम मिल अर्जुन जहां से यात्रा शुरू किया, वह रोजमर्रा की उलझन थी, युद्ध जाए, तो थोड़ा शांति से ध्यान करें। जो बेकार हैं, वे कहते हैं, का सवाल था। क्षत्रिय के लिए रोजमर्रा की उलझन है। मारना, नहीं नौकरी कब मिले। जो नौकरी में हैं, वे कहते हैं, बेकार कब हो जाएं मारना; नैतिक, अनैतिक; क्या करें, क्या न करें; क्या उचित है, कि थोड़ी शांति मिले। क्या करने योग्य है; वह उसकी चिंतना थी। सवाल तो शुरू हुआ लेकिन इनकी कोई भी जिज्ञासा आध्यात्मिक नहीं है। इनका प्रश्न था जिंदगी से। जिंदगी की सामान्य उलझन थी।
| जिंदगी के रोजमर्रा काम से उलझा हुआ है। इस रोजमर्रा के काम हम सबको भी वही उलझन है कि यह करें या न करें? इसका से सत्य के दर्शन का कोई भी संबंध नहीं है। ये जो पूछ रहे हैं, यह क्या फल होगा? पुण्य होगा, पाप होगा? न करें तो अच्छा है कि धार्मिक जिज्ञासा ही नहीं है। करें तो अच्छा है? अंतिम परिणाम जन्मों-जन्मों में क्या होंगे? हम __अब तक अर्जुन जो पूछ रहा था, वह नैतिक जिज्ञासा थी, सब की भी चिंता यही है। मांसाहार करें या न करें? पाप होगा कि धार्मिक नहीं। अब वह जो जिज्ञासा कर रहा है, वह धार्मिक है। पुण्य होगा? धन इकट्ठा करें कि न करें? क्योंकि कहीं कोई गरीब अर्जुन भूल गया कि युद्ध में खड़ा है। हो जाएगा; तो हम पुण्य कर रहे हैं कि पाप कर रहे हैं? क्या करें? इसको खयाल में रखें। इस घड़ी आकर अर्जुन भूल पाया कि क्या उचित, क्या अनुचित? यही उसकी चिंतना थी। इसी से यात्रा युद्ध में खड़ा है। इस घड़ी आकर वह भूल पाया कि प्रियजन सामने शुरू हुई थी। अभी तक वह यही पूछता रहा था।
खड़े हैं और मैं इनको मारने को आया हूं। इस घड़ी युद्ध विलीन हो लेकिन अचानक इस बात को कहने के बाद–कि अब जो आप गया। वह जो चारों तरफ शस्त्र-अस्त्र लिए हुए योद्धा खड़े थे, वे कहते हैं, वैसा ही है, ऐसी श्रद्धा का मुझमें जन्म हुआ—वह एक खो गए, जैसे स्वप्न में चले गए हों। वे नहीं हैं अब। अब सिर्फ दो दूसरा ही सवाल उठा रहा है, जो जीवन की उलझन का नहीं, जीवन ही रह गए उस बड़ी भीड़ में अर्जुन और कृष्ण। आमने-सामने के पार है। वह कह रहा है कि अब मैं विराट को देखना चाहता हूं। खड़े हैं। भीड़ तिरोहित हो गई है। यह आयाम, यह डायमेंशन अलग है।
ऐसा नहीं कि भीड़ कहीं चली गई। भीड़ तो जहां है, वहीं है। पर जब तक आप उन सवालों को पूछ रहे हैं, जिनका संबंध इस अर्जुन के लिए अब उस भीड़ का कोई भी पता नहीं है। अर्जुन अब जीवन के चारों तरफ के विस्तार से है, तब तक आप दर्शन की यात्रा उस भीड़ के संबंध में नहीं सोच रहा है। यह संसार हट गया। अब नहीं कर सकते। जिस दिन आप इस उलझन के थोड़ा पार उठते हैं अर्जुन एक सवाल पूछ रहा है कि जो आपने कहा, अनंत, जिस और परम जिज्ञासा करते हैं कि इस जीवन का स्वरूप क्या है? उस विराट लीला की आपने बात कही, जिस अमृत, अनंत धारा का
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