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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-500 यह प्रतीक है, काव्य-प्रतीक है, कि परमात्मा हमें इस जगत में | मिलता है। उसे कुछ करना नहीं पड़ता। वह तैरता रहता है, जैसे भी सम्हाले है और उस जगत में भी। उसके चार हाथ हैं, वह चारों | कि विष्णु तैर रहे हैं क्षीरसागर में। ऐसा बच्चा मां के पेट के द्रवीय दिशाओं से हमें सम्हाले हुए है। सब ओर से हमें सम्हाले हुए है। | पदार्थों के क्षीरसागर में तैरता रहता है। कोई चिता नहीं। कोई फिक्र उसके हाथ में हम सुरक्षित हैं। हम छोड़ सकते हैं अपने को, वहां | नहीं। कोई उपद्रव नहीं। संसार का कोई पता नहीं। कोई दूसरा नहीं, कोई असुरक्षा नहीं है। | कोई स्पर्धा नहीं। कोई मृत्यु का पता नहीं। कुछ भी पता नहीं। कृष्ण के तो दो ही हाथ हैं। लेकिन अर्जुन ने जब यह विराट रूप | | निश्चित, परम शांति में बच्चा रहता है। देखा, तो उसने प्रार्थना की कि अब मैं इतना घबड़ा गया हूं कि तुम ___ मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मोक्ष की जो धारणा है, वह मनुष्य के चार हाथ वाले की तरह प्रकट हो जाओ, तो ही मेरी घबड़ाहट शांत मन में जो गहरा गर्भ का अनुभव है, उसी का विस्तार है। वे थोड़ी हो सकती है। वह यह कह रहा है कि मैं इतना असुरक्षित हो गया दूर तक ठीक कहते हैं। क्योंकि हमें खयाल ही कैसे मिलता है हूं, इतनी इनसिक्योरिटी मुझे मालूम पड़ रही है कि मैं मरा; मिट | आनंद का? दुख हम जानते हैं। सुख भी थोड़ा-बहुत जानते हैं। गया। अब मैं इस, जो अनुभव मुझे हुआ है, यह ट्रामैटिक है। अब | लेकिन हम सबके मन में यह भी लगा रहता है कि आनंद मिले। इस अनुभव से मैं उबार न सकूँगा अपने को कभी। अब यह भय | आनंद का हमें अनुभव कहां है? हम सब चाहते हैं, शांति मिले। मेरा पीछा करेगा। अब मैं सो न सकूँगा। अब मैं उठ न सकूँगा। शांति को हम जानते तो हैं नहीं। इसलिए बिना जाने किसी चीज की यह मौत जो मैंने देखी है, यह अतिशय हो गई। अब तुम्हारे पुराने | वासना कैसे जगती है? दो हाथ अकेले काम न करेंगे। अब तुम जैसे थे, उतने से ही काम 'जब तक दुनिया में कार नहीं थी, तो किसी आदमी के मन में न चलेगा। अब तुम और भी प्यारे होकर प्रकट हो जाओ। वासना नहीं जगती थी कि कार हो। बैलगाड़ी हो, अच्छे बछड़े ___ इसका मतलब यह है कि अब तुम अनंत प्रेम होकर प्रकट हो | | वाली हो, रथ हो-वह होता था। लेकिन कार हो, ऐसा किसी जाओ। तुमने जो मौत मुझे दिखा दी, उसको संतुलित करने के लिए आदमी के मन में वासना नहीं जगती थी। लेकिन अब जगती है, दूसरे पलड़े पर तुम चारों हाथ फैलाकर मुझे झेल लो, ताकि मैं | क्योंकि अब कार दिखाई पड़ती है। चारों तरफ मौजूद है। सुरक्षित हो जाऊं। शांति को आदमी जानता ही नहीं, अशांति को ही जानता है, तो . यह सिर्फ काव्य-प्रतीक है चार हाथ का। इसका मतलब यह है। | यह शांति की आकांक्षा कहां से जगती है! मनसविद कहते हैं कि कि तुम मां का हृदय बन जाओ मेरे लिए। और ऐसी मां का, जो इस वह जो गर्भ का नौ महीने का अनुभव है, वह गहरे अचेतन में बैठ जगत में ही नहीं, उस जगत में भी! जिसकी गोद में मैं सिर रख दूं गया है। वहां हमको पता है कि नौ महीने हम किसी गहरी शांति में और भूल जाऊं जो मैंने देखा है। जो मैंने देखा है, उसे मैं भूल जाऊं। रह चुके हैं। नौ महीने जिंदगी निश्चित थी, सुरक्षित थी। मृत्यु का मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मृत्यु से जितना भय आदमी के मन | कोई भय न था। हम अकेले थे। और सब तरह से मालिक थे। में है. उसी भय के कारण आदमी मोक्ष को खोजता है। और कल्पवक्ष के नीचे थे। मनोवैज्ञानिक और अनूठी बात कहते हैं, वह शायद समझ में हमने कल्पना की कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष होंगे, उनके नीचे आदमी एकदम से न भी आए। वे कहते हैं, मोक्ष की जो धारणा है आदमी | बैठेगा। इच्छा करेगा, करते ही इच्छा पूरी हो जाएगी। आपको अगर की, वह वही है, जो बच्चे को गर्भ की स्थिति में होती है। जब बच्चा | कल्पवृक्ष मिल जाए, तो बहुत सम्हलकर उसके नीचे बैठना। गर्भ में होता है, तो पूर्ण सुरक्षित, एब्सोल्यूटली सिक्योर्ड होता है। क्योंकि आपको अपनी इच्छाओं का कोई भरोसा नहीं है। कोई असुरक्षा नहीं होती गर्भ में। कोई भय नहीं होता। कोई चिंता ___ मैंने सुना है, एक दफा एक आदमी—वह यहां मौजूद होगा नहीं। कोई जिम्मेवारी नहीं। कोई नौकरी नहीं खोजनी। कोई मकान आदमी–एक दफा कल्पवृक्ष के नीचे पहुंच गया भूल से। उसको नहीं बनाना। कोई भोजन इकट्ठा नहीं करना। कल की कोई फिक्र पता भी नहीं था कि यह कल्पवृक्ष है। उसके नीचे बैठकर उसको ऐसे नहीं है। सब आटोमैटिक है। ही लगा कि बहुत भूख लगी है, अगर कहीं भोजन मिल जाता...। बच्चा गर्भ में पूर्ण मोक्ष की हालत में है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं। वह एकदम चौंका, एकदम थालियां चारों तरफ आ गईं। वह थोड़ा सब उसको मिल रहा है। बिना मांगे मिलता है। जरूरत के माफिक डरा भी कि यह क्या मामला है, कोई भूत-प्रेत तो नहीं है यहां! कहीं 438
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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