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________________ ध्यान की छाया है समर्पण 8 आपने खयाल किया है कि आपकी बुद्धि आपको सिवाय नुकसान | जाती है...। हमारी बुद्धि तो दुख की तरफ ले गई है। अगर दुख पहुंचाने के कुछ और भी करती है? आदमी कितने संकट में रोज ही कसौटी हो, तो हम जिसे बुद्धि कहते हैं, वह जहर है। और अगर बढ़ता जाता है, उसका बहुत कुछ कारण तो उसकी बुद्धि है। वह | आनंद कसौटी हो, तो फिर कृष्ण और बुद्ध जिसे बुद्धि कहते हैं, जितनी बुद्धिमानी करता है, पाता है, उतने ही संकट उसने बढ़ा | उसी की तरफ ध्यान को हटाना पड़ेगा। लिए, अनंत गुना हो गए। यह बुद्धि कुछ और है। यह उन्हें उपलब्ध होती है, जो निरंतर हमने सोचा था, हमारे बुद्धिमानों ने, तथाकथित बुद्धिमानों | मेरे ध्यान में लगे हुए हैं, जो निरंतर मेरी भक्ति में, मेरे स्मरण में ने-अगर हम दो सौ वर्ष के बुद्धिमानों के नाम गिनें, तो हमें पता डूबे हुए हैं। उन्हें मैं वह तत्वयोग, बुद्धियोग देता हूं, जिससे वे चलेगा-उन सभी तथाकथित बुद्धिमानों ने कहा था कि सारी दुनिया अंततः मुझे उपलब्ध हो जाते हैं, अंततः परमात्म रूप हो जाते हैं। को शिक्षित करने से सुख का साम्राज्य उतर आएगा, युनिवर्सल और हे अर्जुन, उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही मैं स्वयं उनके एजुकेशन चाहिए। और उनकी बात हम सबको जंचती थी। अब अंतःकरण में एकीभाव से स्थित हुआ, अज्ञान से उत्पन्न हुए हमने करीब-करीब आधी दुनिया को शिक्षित कर लिया है। और अंधकार को प्रकाशमय दीपक द्वारा नष्ट करता हूं। तत्वज्ञान रूप जहां-जहां हमने शिक्षित कर लिया है, वहां पहली दफा मुसीबत के दीपक द्वारा! नए आयाम शुरू हो गए हैं, जिनका हमें पता ही नहीं था। यह जो बुद्धि जब भीतर पैदा होती है, यह जो बुद्धियोग उपलब्ध आज अमेरिका सबसे ज्यादा सुशिक्षित है। लेकिन अमेरिका के | होता है; जब जीवन दिखाई पड़ता है उसकी समग्रता में, जैसा वह बच्चे आज जो कर रहे हैं, वह ज्यादा से ज्यादा सैवेज, ज्यादा से | | है; हमारे विचारों के अनुसार नहीं, हमारे चश्मों के अनुसार नहीं, ज्यादा जंगली हालत में जो किया जाना चाहिए, वह कर रहे हैं। | हमारी दृष्टियों के अनुसार नहीं, वरन जैसा है, उसकी वास्तविकता लेकिन बुद्धिमानों ने कहा था कि सबको सुशिक्षित कर दो, दुनिया | | में, उसके तत्वरूप में जब दिखाई पड़ता है, तो यही प्रज्ञा दीया बन में बड़ा सुख आ जाएगा। लेकिन जितनी शिक्षा बढ़ी है, उतना दुख | जाती है। और यह सारा अज्ञान, जिसमें हम अब तक जीए हैं, | जिसको हमने अब तक अपना जीवन समझा है, जिसमें हम भटके और शिक्षित आदमी लगता है, सुखी हो ही नहीं सकता। ऐसा | | हैं, ठुकराए गए हैं, ठोकर खाए हैं, दुखी हुए हैं, नर्को-नों का मालूम पड़ता है कि वह जो शिक्षित नहीं है, शायद सुखी हो जाए; परिभ्रमण किया है, वह सारा अंधकार विलीन हो जाता है, शून्य हो लेकिन जो शिक्षित है, वह तो सुखी हो ही नहीं सकता। शायद इतनी जाता है। महत्वाकांक्षा बढ़ जाती है, शायद सुख की इतनी प्रगाढ़ आकांक्षा मनुष्य एक संभावना है प्रकाश की। मनुष्य बीज है प्रकाश का; हो जाती है, शायद सुख पर मुट्ठी बांधने की इतनी तीव्रता हो जाती एक ज्योति उसमें छिपी है। जैसा मैंने कहा, अंडे में छिपा है एक है कि जिस पर मुट्ठी बांधते हैं, वह मुट्ठी से छूट जाता है। और पक्षी; पंख खोल आकाश में उड़ जाए। ऐसा ही एक ज्योतिर्मय पक्षी शायद शिक्षा इतने तनाव बढ़ा देती है कि बुद्धिमान होने का खयाल आपके भीतर छिपा है। एक ज्योति, जो पंख खोले और आकाश तो आ जाता है, लेकिन बुद्धिमत्ता बिलकुल नहीं होती। और तब की तरफ लपट बन जाए, वह आपके भीतर छिपी है। जिंदगी बड़े खिंचाव में, बड़ी बेचैनी में उलझ जाती है। लेकिन मन को तोड़ना पड़े, और अहंकार को ईंधन बनाना पड़े। बुद्धिमान जिनको हम कहते हैं, उनकी मानकर दुनिया चल रही अहंकार बने तेल और जले, तो वह प्रकाश की ज्योति, वह है। जिनको कृष्ण बुद्धियोगी कहते हैं, उनको मानकर दुनिया अब बुद्धियोग आपके भीतर सघन हो। उस बुद्धियोग से जो जाना गया तक चली नहीं। पूजा वगैरह हम उनकी कर लेते हैं। वह आसान है, वही धर्म है। उस प्रकाश में जो पाया गया है, वही मोक्ष है। और तरीका है उनसे निपटने का। जिससे निपटना हो, उसकी पूजा करो उसके बिना जो भी हम जान रहे हैं अंधकार में, वह संसार है। और अपने घर जाओ; उससे निपट गए; उससे झंझट खतम हुई। _इसे हम ऐसा परिभाषित करें, अज्ञान में जो जाना जाता है, वह ठीक है; कि नमस्कार कर लेते हैं आपको। अब हमें क्षमा करें। | संसार है। वही जब ज्ञान से जाना जाता है, तो परमात्मा है। संसार अब हम जाएं। और परमात्मा दो चीजें नहीं हैं। संसार और परमात्मा एक ही यह जो दूसरी बुद्धिमत्ता है, जो जीवन को आनंद की तरफ ले अस्तित्व के दो दर्शन हैं, एक ही अस्तित्व के दो अनुभव हैं। अज्ञान बढ़ा है।
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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