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________________ ॐ मृत्यु भी मैं हूं 8 चाहिए। लेकिन अगर सच में ही दो किनारे दो हों, तो नदी बीच की | में नहीं है। गी, फिर भी बह नहीं सकती। इसका मतलब हआ सभी लोग कहते हैं, हम चिंता छोड़ना चाहते हैं, लेकिन अहंकार कि दो दिखाई पड़ने चाहिए और दो होने नहीं चाहिए। ऊपर से दो | | कोई नहीं छोड़ना चाहता है। इसलिए और एक नई चिंता सिर पर मालूम पड़ने चाहिए, भीतर से एक होने चाहिए। सवार हो जाती है कि चिंता कैसे छोड़ें! लेकिन आपको अगर कोई इसलिए भारत ने डायलेक्टिक्स को, द्वंद्वात्मकता को एक नया सच में ही कहे कि चिंता छोड़ने की यह सरल-सी, बहुत सरल-सी अर्थ दिया। द्वंद्व ऊपरी है, अद्वंद्व भीतरी है। द्वैत ऊपर है, अद्वैत कीमिया है, कि आप अपने को कर्ता मत मानें और फिर आप चिंता भीतर है। दो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन वे एक के ही दो रूप हैं। करके दिखा दें, तो मैं समझं। आप चौबीस घंटे के लिए तय कर इसलिए कृष्ण कहते हैं, जीवन भी मैं हूं, मृत्यु भी मैं हूं। ये दोनों | लें कि मैं अपने को कर्ता नहीं मानूंगा। फिर आप चौबीस घंटे में किनारे मेरे हैं। लेकिन चूंकि दोनों किनारे ही मैं हूं, इसलिए दोनों चिंता करके बता दें तो मैं समझं कि आपने एक चमत्कार किया किनारे दो दुश्मन नहीं हैं, बल्कि एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। है। यह हो नहीं सकता। इसलिए न तू जीवन की चिंता कर अर्जुन, और न तू मृत्यु की चिंता __ चिंता आती ही उसी क्षण में है, जहां मैं कर्ता मानता हूं। जहां मैं कर। तू दोनों चिंताएं मुझ पर छोड़ दे, वे दोनों मैं हूं। तू व्यर्थ बीच कर्ता नहीं मानता, चिंता का कोई सवाल नहीं है। तब मैं इस विराट में आकर चिंता अपने सिर ले रहा है। प्रवाह का एक अंग हो जाता हूं। और करने का सारा भार विराट पर लेकिन हमें कठिनाई लगती है। लोग आमतौर से कहते हैं कि | | हो जाता है, मुझ पर नहीं। फिर अच्छा हो, तो उसका है; और बुरा हम चिंता छोड़ना चाहते हैं, लेकिन अब तक मैंने ऐसे बहुत कम | | हो, तो उसका है। और जीवन आए, तो उसका है। मृत्यु आए, तो लोग देखे, जो सच में ही चिंता छोड़ना चाहते हैं। कहते हैं जरूर, उसकी है। बीमारी हो तो, स्वास्थ्य हो तो, सुख हो तो, दुख हो तो; लेकिन कहने से किसी को भूल में पड़ने की जरूरत नहीं है। सच जो भी हो, उसका है। मैं उसका एक हिस्सा हूं। फिर आपको चिंता तो.यह है कि वे कहते इसलिए हैं कि यह कहकर वे और एक नई | करने का उपाय नहीं बचता। चिंता अपने लिए पैदा करते हैं, कि मैं चिंता छोड़ना चाहता हूं! बस, | इसे ऐसा समझें कि अहंकार घाव की तरह है। उसी घाव में और कुछ नहीं करते। एक नई चिंता, एक धार्मिक चिंता, एक नई जरा-जरा सी चोट रोज लगती है और चिंता पैदा होती है। अहंकार अशांति कि मुझे शांति चाहिए! एक फोड़ा है, नासूर है। उसमें जरा-सी चोट लगी...। लेकिन चिंता कोई छोड़ना नहीं चाहता। गहरे में चिंता छोड़ना __ और मजा ऐसा है न, कि अगर आपके पैर में कहीं चोट लग बड़ा मुश्किल है, क्योंकि चिंता छोड़ने का अर्थ अहंकार को छोड़ने जाए, तो फिर दिनभर आपको उसी में चोट लगेगी! आपने कभी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता है। अहं | खयाल किया? बल्कि आप चकित भी होंगे कि हद्द हो गई, रोज छोडना चाहता। चिंता.सभी छोडना चाहते हैं। और चिंता के सब इसी दरवाजे से निकलता हं. रोज इसी फर्नीचर के पास से गजरता फूल-पत्ते अहंकार में लगते हैं। अगर कोई चिंता पूरी छोड़ दे, तो हूं, रोज इसी कुर्सी पर बैठता हूं, रोज इसी टेबल की टांग से अहंकार तत्काल छोड़ना पड़ेगा। मुलाकात होती है, लेकिन आज इन सबने तय क्यों कर रखा है कि अर्जुन की तकलीफ क्या है? वह यह कह रहा है कि मैं कर्ता हूं। | मेरे पैर में ही चोट लगती है! यह मैं हत्या करूंगा। यह मैं युद्ध करूंगा। यह पाप मेरे ऊपर होगा। चोट रोज भी लगती थी, आपको पता नहीं चलती थी। क्योंकि तो मैं तो पुण्यं करना चाहता हूं। मैं त्याग करता हूं। मैं तो संन्यास | | पता चलने के लिए फोड़ा चाहिए, घाव चाहिए। चोट कल भी लेकर जंगल चला जाऊंगा। मैं तो बैठकर ध्यान, पूजा, प्रार्थना | लगती थी, कल भी इस दरवाजे के पास से निकलते वक्त पैर में करूंगा। मैं गलत को नहीं करूंगा; ठीक को करूंगा। मैं गलत कैसे | | लगा था, लेकिन आपको पता नहीं चला था। क्योंकि पता चलने कर सकता हूं! मैं तो ठीक ही करूंगा। मैं कर्ता ही बनूंगा, तो अच्छे | के लिए दरवाजे का लगना काफी नहीं है, आपके पास संवेदनशील का बनूंगा, बुरे का नहीं बनूंगा। लेकिन कर्ता मैं रहूंगा। यही उसकी घाव भी चाहिए जिसमें पता चले। चिंता है, यही उसका संताप है। __ अहंकार एक घाव है, जिसमें प्रतिपल चोट लगती है। रास्ते से ठीक से समझें, तो अहंकार के अतिरिक्त और कोई चिंता जगत गुजर रहे हैं और कोई अपने ही कारण हंस रहा है, और आपको [135
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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