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________________ 8 ईश्वर अर्थात ऐश्वर्य उसके तारों को छूता है, तो उन स्वरों में भी उसका ही स्वर आता है। सजातीयता है। श्रेष्ठ को देखकर हम बड़े बेचैन होते हैं। उससे हम जहां भी कोई चीज श्रेष्ठता को छूती है, अभिजात्य को छूती है, अपना कोई समझौता नहीं कर पाते, उसके साथ हमें बड़ी अड़चन वहीं उसकी झलक मिलनी शुरू हो जाती है। लेकिन उतनी ऊंची | होने लगती है। आंखें उठाना हमें बड़ा मुश्किल है। नीत्शे ने कहा है कि अगर कहीं कोई ईश्वर है, तो मैं उसे तभी मंसूर को सूली लगी, और मंसूर के लोगों ने हाथ-पैर काट | बर्दाश्त कर सकता हूं, जब उसी के बराबर के सिंहासन पर मैं भी डाले। क्योंकि मंसूर ने कहा कि मैं परमात्मा हूं। और जब मंसूर को | विराजमान होऊ। और अगर कहीं कोई ईश्वर है, तो मैं इनकार करता सूली पर लटकाया गया और उसके पैर काट डाले गए, तो एक | ही रहूंगा तब तक, जब तक कि मैं भी उसी ऊंचाई पर न बैठ जाऊं। आदमी ने मंसूर की तरफ आंख उठाकर देखा। - इसलिए श्रेष्ठ को स्वीकार करना बड़ा कठिन हो जाता है। यह थोड़ी बारीक घटना है। भीड़ इकट्ठी थी। एक लाख आदमी | यही तो कठिनाई है। अगर कोई आदमी आपसे आकर कहे कि थे सूली देने को। सूली देने में हमारी इतनी उत्सुकता है, जिसका | | फलां आदमी असाधु है, बेईमान है, चोर है, तो हम बड़ी प्रफुल्लता हिसाब नहीं! दूर-दूर से लोग चलकर आए थे। और उस आदमी | से स्वीकार कर लेते हैं। कोई आकर कहे कि फलां आदमी साधु है, का कसूर कुल इतना था कि उसने घोषणा की थी कि मैं मिट गया | | सज्जन है, संत है, तो कभी आपने खयाल किया है कि आपके हूं और केवल परमात्मा है। उसकी घोषणा में इतनी ही गलती थी | | भीतर स्वीकार का भाव बिलकुल नहीं उठता। आप कहते हैं कि कि उसने परम ऐश्वर्य को घोषित किया था। और उस आदमी में | | तुम्हें पता नहीं होगा अभी, पीछे के दरवाजों से भी पता लगाओ कि था। उसकी आंखों में थी बात। उसके हृदय में थी बात। | वह आदमी साधु है? क्योंकि हमने बहुत साधु देखे हैं। तुमने सुन और जब कोई मंसूर से कहता था कि तुम अपने को ईश्वर कहते | लिया होगा किसी से। कोई दलाल, कोई एजेंट तुम्हें मिल गया होगा हो! तो मंसूर कहता था, जब तक मैं था, तब तक तो मैंने अपने को साधु का, उसने तुमसे प्रशंसा कर दी। जरा सावधान रहना। इस आदमी भी नहीं कहा। जब से मैं नहीं रहा हूं, तब से ही मैंने कहा | | तरह के जाल में मत फंस जाना। है कि ईश्वर हूं। मैं नहीं हूं, ईश्वर ही है। लेकिन लोग कहते कि सब अगर हम यह न भी कहें, तो यह भाव हमारे भीतर होता है। बातें हैं। | अगर यह भाव हमें पता भी न चले, तो भी हमारे भीतर होता है। भीड़ इकट्ठी थी, लेकिन कम ही लोगों की आंखें ऊपर की तरफ | कोई श्रेष्ठ है, इसे स्वीकार करने में बड़ी बेचैनी है। कोई निकृष्ट है, थीं, जहां मंसूर के गले में सूली लगने वाली थी। लोग तो नीचे | | इसे स्वीकार करने में बड़ी राहत है। पत्थर उठा रहे थे झुके हुए; पत्थर मारने की तैयारियां कर रहे थे। | जब हमें पता चलता है कि दुनिया में बहुत बेईमानी हो रही है, एक आदमी ने मंसूर की तरफ देखा तो चकित हुआ, क्योंकि चोरी हो रही है, हत्याएं हो रही हैं, तो हमारी छाती फूल जाती है। उसके होंठों पर मुस्कुराहट थी। और मंसूर बड़े आनंद से भरा था। | तब हमें लगता है, कोई हर्ज नहीं, कोई मैं ही बुरा नहीं हूं, सारी तो उस आदमी ने पूछा कि मंसूर, तुम किस आनंद से भरे हो? तो | दुनिया बुरी है। और इतने बुरे लोगों से तो मैं फिर भी बेहतर हूं। मंसूर ने जो कहा था, उसे मैं बहुत धीरे से आपसे कहता हूं। मंसूर ने | | रोज लोग अखबार पढ़ते हैं, उसमें पहले वे देखते हैं, कहां हत्या कहा, मैं इसलिए खुश हो रहा हूं कि शायद मुझे देखने को ही तुम्हारी | | हो गई, कहां चोरी हो गई, कौन किस की स्त्री को लेकर भाग गया आंखें थोड़ा ऊपर उठ सकें। सूली लंबी है, शायद मुझे देखने को ही है। तब वे छाती फुलाकर बैठते हैं कि मैं बेहतर हूं इन सबसे। किसी तुम्हारी आंखें थोड़ी ऊपर उठ सकें। इस बहाने ही सही, तुम एक बार की स्त्री को भगाने की योजना तो मैं भी करता हूं, लेकिन कार्यरूप ऊपर देख सको, तो मेरा सूली लगना भी सार्थक हुआ। | में कभी नहीं लाता! हत्या करने का मेरे मन में भी कई बार विचार लेकिन पता नहीं, वे लोग समझ पाए कि नहीं समझ पाए। उठता है, लेकिन सिर्फ विचार है। ऐसे तो मैंने किसी को कभी क्योंकि यह तो बड़ी प्रतीक की बात थी। हम ऊपर देखने के आदी कंकड़ भी नहीं मारा। ऐसे चोरी तो मेरे मन में भी आती है, लेकिन ही नहीं हैं। हमारी आंखें जमीन में गड़ गई हैं। हमारी आंखें जमीन सपनों में ही आती है; वस्तुतः मैं चोर नहीं हूं। की कशिश से बंध गई हैं। ऊपर उठाने में हमें आंखों को बड़ी पीड़ा अखबार में अगर गलत खबरें न हों, तो पढ़ने में रस ही नहीं होती है। क्षुद्र को देखकर हम बड़े प्रसन्न होते हैं। उससे हमारी बड़ी आता। इसलिए अखबार साधुओं की कोई खबर नहीं दे सकते, 37
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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