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ॐ गीता दर्शन भाग-508
सबको आता है, रास्ता नहीं है। और हर एक को रास्ता अपना ही जा सकता, वही परमात्मा है। बनाना पड़ता है। कोई दूसरे का रास्ता काम नहीं पड़ता। दूरी हो तो - तब तो यह मतलब हुआ कि हम उसे खोज रहे हैं, तो हम गलती दूसरे के रास्ते काम पड़ते हैं, दूरी यहां बिलकुल नहीं है। यहां इंचभर | कर रहे हैं। निश्चित ही! खोजने से कोई उसे पाता नहीं। खोजने से का फासला नहीं है।
सिर्फ एक ही बात पता चलती है कि खोज व्यर्थ थी। खोजने से यह बहुत पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी दिखाई पड़ेगा। जब दूरी | सिर्फ हम थकते हैं और रुकते हैं। लेकिन जिस दिन हम थकते हैं होती है, तो हम पहुंच सकते हैं चलकर। और जब दूरी बिलकुल न और रुकते हैं, उसी दिन उसे पा लेते हैं। हो, तो हम पहुंच सकते हैं रुककर; चलकर नहीं पहुंच सकते। | तो खोज का एक उपयोग है, नकारात्मक। उससे व्यर्थता पता अगर मुझे आपके पास आना है, तो मैं चलकर आऊंगा। और चल जाती है। दौड़ना, जाना, कहीं पाने की कोशिश, वह सब व्यर्थ अगर मुझे मेरे ही पास आना है, तो चलना फिजूल है। और अगर | हो जाती है। जिस दिन हम इस हालत में आ जाते हैं कि न कुछ पाने मैं मेरे ही पास पहुंचने के लिए चलता हूं, तो उसका मतलब, मैं | को है, न कुछ खोजने को है, न कहीं जाने को है, और भीतर सारी पागल हूं। कोई आदमी कहे कि मैं मेरे ही पास जाने के लिए दौड़ गति शून्य हो जाती है, उसी क्षण हम उसे पा लेते हैं, क्योंकि उसे रहा हूं, तो आप कहेंगे, वह पागल है। क्योंकि दौड़ तो और दूर ले हम पाए ही हुए हैं। वह हमारा अस्तित्व है। . जाएगी, पास कैसे लाएगी? पास आना हो तो सब दौड़ छोड़ देनी हे परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है। यह तो मैंने पड़ती है।
अपनी विभूतियों का विस्तार तेरे लिए संक्षेप से कहा है। लेकिन यही सबसे बड़ी कठिनाई है, यह सरलता, परमात्मा का ये जो इतने-इतने प्रतीक कृष्ण ने लिए और अर्जुन को इतने-इतने निरंतर मौजूद होना। यह भाषा में फिर भी गलत है कहना कि वह मार्गों से इशारा किया, वे कहते हैं, यह तो बहुत संक्षिप्त में मैंने तुझे हमारे पास है, क्योंकि पास का मतलब भी थोड़ी दूरी तो होती ही | कुछ इशारे किए हैं। मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नहीं है। है। हम वही हैं। फिर भी भाषा में दो हो जाते हैं, मैं और वह। जिसका अंत हो जाए, वह विभूति नहीं है। जिसका अंत हो जाए,
इसलिए ज्ञानियों ने या तो कहा कि मैं ही हूं, अहं ब्रह्मास्मि! और वह दिव्य भी नहीं है। जिन-जिन चीजों का अंत होता है, वे-वे चीजें या कहा कि तू ही है। या तो मैं ही हूं, और या तू ही है। क्योंकि दो सांसारिक हैं। और जिन-जिन का प्रारंभ होता है, वे भी चीजें का उपयोग करने में फिर थोड़ा सा फासला बनता है। उतना फासला सांसारिक हैं। दिव्य से अर्थ ही वही है कि जिसका न कोई प्रारंभ है भी नहीं है।
और न कोई अंत है; जिसका हम खोज नहीं सकते कि कब प्रारंभ कृष्ण का यह कहना कि सारे अस्तित्व में, होने मात्र में, मैं ही हुआ और जिसकी हम खोज नहीं कर सकते कि कब समाप्त होगा। समाया हुआ हूं, इन बहुत-सी बातों की सूचना है। जिसे भी खोजना ___ इसका यह अर्थ नहीं है कि हमारी खोज छोटी है। नहीं, हम हो उसे, उसे खोजने की भूल में नहीं पड़ना चाहिए। क्योंकि उसे | | कितना ही खोजें, जिसका स्वभाव ही अनादि और अनंत होना है, हमने कभी खोया नहीं है। जिसे हम खो दें, उसे खोज भी सकते हैं। | वही दिव्यता है, वही डिवाइननेस है। लेकिन परमात्मा को खोने का कोई उपाय नहीं है। आप परमात्मा __इस जगत में जहां-जहां हमें प्रारंभ मिल जाता हो और अंत मिल को खो नहीं सकते हैं।
जाता हो, समझ लेना कि वहां-वहां संसार है। और जहां प्रारंभ न अगर परिभाषा की तरह से कहा जाए, तो परमात्मा का अर्थ है, मिलता हो और अंत न मिलता हो किसी बात का, वहीं-वहीं आपका वह हिस्सा, जिसे आप खो नहीं सकते। जो-जो हिस्से आप समझना कि परमात्मा की झलक मिलनी शरू हई। खो सकते हैं-शरीर आप खो सकते हैं। मन आपका कल बदल लेकिन हम तो परमात्मा को भी वस्तुओं की तरह देखना चाहते सकता है, खो सकते हैं। आंखें कल आपकी फूट सकती हैं; इंद्रियां | हैं। हम तो चाहते हैं, परमात्मा भी सामने खड़ा हो जाए, तभी हम खो सकते हैं। होश भी, जिसको हम होश कहते हैं, वह भी खो | | मानें। नास्तिक यही कहता है कि कहां है तुम्हारा ईश्वर ? उसे सामने सकता है; कल आप बेहोश हो सकते हैं। लेकिन जिसे आप खो | कर दो; हम मान लें। उसका प्रश्न सार्थक मालूम होता है, लेकिन ही नहीं सकते, वही परमात्मा है आपके भीतर। आपका होना, ! बिलकुल ही व्यर्थ है। क्योंकि वह ईश्वर शब्द की परिभाषा भी नहीं बीइंग. आपका अस्तित्व. वह आप नहीं खो सकते। जो नहीं खोया
| समझ पाया।
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