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________________ गीता दर्शन भाग-500 श्रीभगवानुवाच और बात नहीं कि कोई भगवान को खोजे। क्योंकि खोजा केवल सुदुर्दशीमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम । उसी को जा सकता है, जिसे हमने खो दिया हो। जिसे हमने खोया देवा अप्यस्य लपस्य नित्यं दर्शनकाक्षिणः।। ५२ ।। ही नहीं है, उसे खोजने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन जब यह पता नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न वेज्यया। चल जाए कि मैं भगवान हूं, तभी खोज असंगत है, उसके पहले शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ।। ५३ ।। असंगत नहीं है। उसके पहले तो खोज करनी ही पड़ेगी। भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । खोज से भगवान न मिलेगा, खोज से सिर्फ यही पता चल ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ।। ५४ ।। | जाएगा कि जिसे मैं खोज रहा हूं वह कहीं भी नहीं है, बल्कि जो मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः।। | खोज रहा है वहीं है। खोज की व्यर्थता भगवान पर ले आती है, निवरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ।। ५५।।। खोज की सार्थकता नहीं। इस प्रकार अर्जुन के वचन को सुनकर श्रीकृष्ण भगवान इसे थोड़ा समझना कठिन होगा, लेकिन समझने की कोशिश बोले, हे अर्जुन, मेरा यह चतुर्भुज रूप देखने को अति दुर्लभ करें। है कि जिसको तुमने देखा है, क्योंकि देवता भी सदा इस यहां खोजने वाला ही वह है जिसकी खोज चल रही है। जिसे रूप के दर्शन करने की इच्छा वाले हैं। आप खोज रहे हैं वह भीतर छिपा है। इसलिए जब तक आप खोज और हे अर्जुन, न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ करते रहेंगे, तब तक उसे न पा सकेंगे। लेकिन कोई सोचे कि बिना से इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला में देखा जाने को शक्य हूं खोज किए, ऐसे जैसे हैं ऐसे ही रह जाएं, तो उसे पा लेंगे, वह भी कि जैसे मेरे को तुमने देखा है। | न पा सकेगा। क्योंकि अगर बिना खोज किए आप पा सकते होते, परंतु हे श्रेष्ठ तप वाले अर्जुन, अनन्य भक्ति करके तो इस - तो आपने पा ही लिया होता। बिना खोज किए मिलता नहीं, खोजने प्रकार चतुर्भुज रूप वाला में प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्व | से भी नहीं मिलता। जब सारी खोज समाप्त हो जाती है और खोजने से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात | वाला चुक जाता है, कुछ खोजने को नहीं बचता, उस क्षण यह एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूं। घटना घटती है। हे अर्जुन, जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सब कुछ मेरा कबीर ने कहा है, खोजत-खोजत हे सखी रह्या कबीर हिराइ। समझता हुआ संपूर्ण कर्तव्य-कमों को करने वाला है और खोजते-खोजते वह तो नहीं मिला, लेकिन खोजने वाला धीरे-धीरे मेरे परायण है अर्थात मेरे को परम आश्रय और परम गति खो गया। और जब खोजने वाला खो गया, तो पता चला कि जिसे मानकर मेरी प्राप्ति के लिए तत्पर है तथा मेरा भक्त है और | हम खोजते थे वही भीतर में आसक्तिरहित है अर्थात स्त्री, पुत्र और धनादि संपूर्ण हम जब परमात्मा को भी खोजते हैं, तो ऐसे ही जैसे हम दूसरी सांसारिक पदार्थों में स्नेहरहित है और संपूर्ण भूत-प्राणियों में | | चीजों को खोजते हैं। कोई धन को खोजता है, कोई यश को खोजता वैर-भाव से रहित है, ऐसा वह अनन्य भक्ति वाला पुरुष है, कोई पद को खोजता है। आंखें बाहर खोजती हैं-धन को, पद मेरे को ही प्राप्त होता है को, यश को, ठीक। हम भगवान को भी बाहर खोजना शुरू कर देते हैं। हमारी खोज की आदत बाहर खोजने की है। उसे भी हम बाहर खोजते हैं। बस वहीं भूल हो जाती है। वह भीतर है। वह एक मित्र ने पूछा है कि सृष्टि और स्रष्टा यदि एक हैं खोजने वाले की अंतरात्मा है।। और अगर हम स्वयं भगवान ही हैं, तो फिर भगवान | लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मैं आपसे कह रहा हूं कि खोजें को पाने या खोजने की बात ही असंगत है। मत। आप खोज ही कहां रहे हैं जो आपसे कहूं कि खोजें मत। जो खोज रहा हो, खोजकर थक गया हो, उससे कहा जा सकता है, रुक जाओ। जो खोजने ही न निकला हो, जो थका ही न हो, जिसने खोज श्चित ही असंगत है। इससे ज्यादा बड़ी भूल की कोई की कोई चेष्टा ही न की हो, उससे यह कहना कि चेष्टा छोड़ दो, 1428
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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