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गीता दर्शन भाग-5
है, तो इस छोटी-सी लकड़ी से क्या होगा! तो एक चंदन की बड़ी लकड़ी खुदाई करवाकर आले में उन्होंने लगा दी।
फिर बेटे बड़े हुए। वे उसकी रोज पूजा कर देते थे। क्योंकि बाप को उन्होंने रोज आले के पास जाते देखा था। वे भी रोज भोजन के बाद जाकर नमस्कार करके कभी दो फूल चढ़ा देते थे ।
फिर बड़े हुए। उन्होंने बड़ा मकान बनाया; पुराना मकान तोड़ा। तो उन्होंने सोचा, आले की अब क्या जरूरत है, एक छोटा मंदिर ही बना दें। तो आले की जगह उन्होंने एक संगमरमर का मंदिर बना दिया। फिर उन्होंने सोचा, लकड़ी ! अब तो हमारे पास पैसे भी हैं, तो उन्होंने एक चंदन की प्रतिमा स्थापित कर दी। वे नियमित भोजन बाद उसकी पूजा करते थे ।
सुना है मैंने, उस घर में अब भी पूजा चलती है। वह जो लकड़ी थी, वह दांत साफ करने के काम आती थी। लेकिन अब वह लकड़ी मंदिर की प्रतिमा बन गई और उसकी पूजा होती है।
अगर हम अपनी जिंदगी में तलाश करने जाएंगे, तो हमें सौ में निन्यानबे इस तरह की चीजें मिलेंगी, जिनका कोई भी संबंध समझ और विकास से नहीं है। जिनका संबंध किन्हीं चीजों को अंधे की तरह पकड़ लेने से है। और जब कोई आदमी धर्म के जगत में किसी चीज को अंधे की तरह पकड़ लेता है, तो बहुत महंगा सौदा है। क्योंकि उसकी सारी आगे की यात्रा ठहर जाती है; र रुक जाती है। कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों में मैं मन हूं।
वे इतना ही कह रहे हैं कि तुम कम से कम पांच इंद्रियों से हटो और मन तक पहुंचो। इतना भी कुछ कम नहीं है कि तुम जानो कि कान तुम नहीं हो, बल्कि वह हो, जो कान से आवाज को सुनता है। इतना भी कुछ कम नहीं है, तुम जानो कि आंख तुम नहीं हो । आंख से जो देखता है, आंख से जो झांकता है, वह मन तुम हो । अगर इतना तुम जान लो, तो कल इतना भी समझ सकते हो कि भी तुम नहीं हो, मन जो जानता है, मन को भी जो साक्षी भाव से देखता है, मन का भी जो ज्ञाता है, वह तुम हो ।
मन
और इसलिए दूसरे सूत्र में उन्होंने कहा, भूत-प्राणियों में चेतना, चेतनता अर्थात ज्ञान - शक्ति हूं।
तत्क्षण! इंद्रियों में मन हूं, उसके बाद ही शीघ्र दूसरा सूत्र कहा कि मन के भी जो पार चेतना है, जानने की क्षमता है, कांशसनेस हैं, वह मैं हूं। यह इसी कारण दूसरे सूत्र में तत्काल कहा, कि पहला सूत्र खतरनाक हो सकता है। कोई अपने को मन ही मान ले ! इस जगत में चार तरह के लोग हैं। एक, जो अपने को शरीर ही
मानते हैं। ये बिलकुल मकान के आस-पास ही घूमते हैं। मकान की सीढ़ियां भी नहीं चढ़ते। दूसरे, जो अपने को मन मानते हैं। ये थोड़ी-सी सीढ़ियां चढ़ते हैं, लेकिन द्वार पर अटक जाते हैं। तीसरे, | जो अपने को आत्मा मानते हैं। ये और भी गहरे जाते हैं, लेकिन फिर भी जो प्रतिमा मंदिर में स्थापित है, उसके आस-पास ही | चक्कर लगाते हैं। चौथे वे, जो अपने को परमात्मा ही जानते हैं। ये वे हैं, जो प्रतिमा के साथ एक हो जाते हैं। ये चार तरह के लोग हैं।
अधिकतम लोग अपने को शरीर मानते हैं। अधिकतम लोग ! जो कहते हैं कि नहीं, हम आत्मा मानते हैं, वे भी अपने को शरीर ही मानते हैं। अगर उनकी हम जीवन-चर्या देखें, तो हमें पता चल जाएगा। वे भी अपने को शरीर ही मानते हैं । उनका अगर हम व्यवहार देखें, तो हमें पता चल जाएगा, वे भी अपने को शरीर ही मानते हैं। अगर उन्हें हम कठिनाई में डाल दें, तो हमें पता चल जाएगा कि वे भी अपने को शरीर मानते हैं।
जो आदमी कहता है, मैं आत्मा हूं, आत्मा अमर है, एक छुरा उसके कंधे पर रखें और अंधेरे में उसको पकड़ लें, वह फौरन | चिल्लाएगा कि 'क्यों मारे डाल रहे हो। वह जो कहता था, आत्मा अमर है, छुरे को देखकर कहेगा, मुझे क्यों मारे डाल रहे हो ! छुरा आत्मा को नहीं मार सकता। छुरा तो शरीर को ही मार | सकता है। लेकिन तब वह यह नहीं कहेगा कि क्यों मेरे शरीर को व्यर्थ काट रहे हो ? वह कहेगा, क्यों मुझे मारे डाल रहे हो!
इपिटैक्टस को यूनान के सम्राट ने अपने पास बुलवाया था। क्योंकि सम्राट को किसी ने कहा कि इपिटैक्टस कहता है कि आत्मा | अमर है। सम्राट शरीरवादी था। उसने इपिटैक्टस को बुलवाया और | कहा कि मैंने सुना है – सोचकर जवाब देना – मैंने सुना है कि तुम कहते हो, आत्मा अमर है। मैं कोई सिद्धांत की चर्चा के लिए नहीं | बुलाया हूं, मैं तो सीधी परीक्षा लूंगा। क्योंकि मैं तो मानता हूं, शरीर के सिवाय कुछ भी नहीं है।
इपिटैक्टस ने कहा, तो परीक्षा शुरू करो! क्योंकि वक्तव्य देने की क्या जरूरत है; परीक्षा ही वक्तव्य देगी । और जब तुम मानते ही नहीं हो कि शरीर के अलावा कुछ है, तो मैं समझाऊं भी तो किसको समझाऊं ! तुम परीक्षा शुरू करो।
सम्राट ने दो आदमियों को आज्ञा दी और कहा कि इपिटैक्टस | का एक पैर मोड़कर तोड़ डालो। इपिटैक्टस ने पैर आगे बढ़ा दिया और उन दोनों आदमियों से कहा कि इस तरह बाएं तरफ घुमाओ, जल्दी टूट जाएगा। सम्राट ने कहा, यह मैं मजाक नहीं कर रहा हूं।
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