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3 गीता दर्शन भाग-500
रोकने वाले नहीं हैं। वे सिर्फ इतना कह रहे हैं कि तू चेष्टा करके | - इसके दो उत्तर हैं। और जो उत्तर भारत ने दिया है, वह बड़ा कुछ मत कर। तू निश्चेष्ट भाव से, निमित्त मात्र हो जा और जो होता अदभुत है। एक उत्तर तो कोई प्रयोजन खोजना है। जैसे कुछ धर्म है, वह हो जाने दे। अगर युद्ध हो, तो ठीक। और अगर तू भाग कहते हैं कि आत्मज्ञान को पाना इसका प्रयोजन है। जैसा जैन जाए और संन्यास ले ले, तो वह भी ठीक। तू बीच में मत आ, तू कहते हैं कि इस सारी यात्रा के पीछे, इस सारे भवजाल के पीछे स्रष्टा मत बन। तू केवल निमित्त हो।
आत्मसिद्धि, आत्मज्ञान, कैवल्य को पाना लक्ष्य है। या जैसे ऐसी अगर दृष्टि हो, तो आप कैसे अशांत हो सकेंगे? ऐसी ईसाइयत कहती है कि परमात्मा का अनुभव, उसके राज्य में प्रवेश, अगर दृष्टि हो, तो कौन आपको परेशान कर सकेगा? ऐसी अगर किंगडम आफ गॉड, उसके साथ उसके सान्निध्य में रहना, उसकी दृष्टि हो, तो चिंता फिर आपके लिए नहीं है। और जो परेशान नहीं, खोज इसका प्रयोजन है। चिंतित नहीं, बेचैन नहीं, उसके भीतर वे शांति के वर्तुल बन जाते लेकिन ये बातें बहुत गहरी जाती नहीं। क्योंकि पूछा जा सकता हैं, जिनसे भीतर की यात्रा होती है और परम स्रोत तक पहुंचना हो | है कि अगर सिद्धि और आत्मज्ञान पाना ही इसका प्रयोजन है, तो जाता है।
इतनी बाधाएं खड़ी करने की क्या जरूरत है सिद्धि और आत्मज्ञान | में? और आत्मा तो. मिली ही हई है। तो इतनी लंबी यात्रा. इतना
कष्ट का जाल, इतना उपद्रव क्यों है? यह सीधा-सीधा हो जाए। एक और प्रश्न। परम सत्ता को परम चैतन्य और परम अगर कोई परमात्मा यही चाहता है कि हम आत्मज्ञान को प्रज्ञा कहा गया है। लेकिन उसमें घटित सृजन, फिर | उपलब्ध हो जाएं, तो वह हमें आशीर्वाद दे दे और हम आत्मज्ञान विनाश, फिर सृजन, फिर विनाश के वर्तुल को को उपलब्ध हो जाएं; वह प्रसाद बांट दे, हम आत्मज्ञान को देखकर बडा अजीब-सा लगता है। क्या आप समझा उपलब्ध हो जाएं। उसके चाहने से घटना घट जाएगी। यह इतना सकते हैं कि इस वर्तुल के पीछे कोई कारण, कोई | जाल किस लिए? जन्मों-जन्मों का इतना कष्ट, यह किस लिए? अर्थ, कोई मीनिंग, कोई सार्थकता है?
अगर यह परमात्मा ही कर रहा है, तो परमात्मा बहुत विक्षिप्त मालूम पड़ता है। यही काम करना है कि सभी लोग सिद्ध हो जाएं,
तो वह सभी लोगों को सिद्ध इसी क्षण कर सकता है। . - सको थोड़ा खयाल में लेना जरूरी होगा। क्योंकि | ___ इसलिए जैनों ने परमात्मा को नहीं माना। क्योंकि अगर परमात्मा र गीता को समझना बहुत आसान हो जाएगा। न केवल | को मानते हैं, तो बड़ी कठिनाई खड़ी होगी। वह क्यों नहीं अभी तक
गीता को, बल्कि भारत की पूरी खोज को समझना | लोगों को मुक्त कर देता है? तो जैनों ने कहा है कि संसार में कोई आसान हो जाएगा।
| परमात्मा नहीं, जो तुम्हें मुक्त कर सके। तुम्हीं को मुक्त होना है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या है कारण इस सबका मगर क्यों? यह अमुक्ति क्यों है? और आदमी अमुक्त क्यों कि आदमी को जन्म दो, मृत्यु दो; सृष्टि बनाओ, प्रलय करो। इधर | हुआ? इसका कोई उत्तर जैनों के पास नहीं है। वे कहते हैं, अनादि ब्रह्मा बनाएं, उधर विष्णु सम्हालें, वहां शंकर विनष्ट करें। यह सब है। मगर क्यों? वे कहते हैं कि मुक्त होना है और मुक्त होने की क्या उपद्रव है? और इसका क्या प्रयोजन है? यह बनाने-मिटाने | संभावना है, मुक्त लोग हो गए हैं। लेकिन आदमी की आत्मा बंधन का जो वर्तुल है, अगर यह गाड़ी के चाक की तरह घूमता ही रहता | | में ही क्यों पड़ी? इसका कोई उत्तर नहीं है। वे कहते हैं, निगोद से है, तो यह जा कहां रही है गाड़ी? यह जो चाक घूम रहा है, यह | पडी है. अनंत काल से पडी है। लेकिन क्यों पडी है? कितने ही काल कहां ले जा रहा है ? इसकी निष्पत्ति क्या होगी? अंततः क्या है लक्ष्य | | से पड़ी हो, आदमी अमुक्त क्यों है? इसका कोई उत्तर नहीं है। इस सारे विराट आयोजन का? इसके पीछे क्या राज है? यह सवाल | | अगर ईश्वर के राज्य में पहुंचना ही लक्ष्य हो, तो ईश्वर ने हमें गहरा है और आदमी निरंतर पूछता रहा है कि क्या है प्रयोजन इस | पटका क्यों है? वह हमें पहले से ही राज्य में बसा सकता था! अगर जीवन का? इस विराट आयोजन में निहित क्या है? क्यों यह सब | ईसाइयत कहती है कि चूंकि आदमी ने बगावत की ईश्वर के हो रहा है?
खिलाफ, अदम ने आज्ञा नहीं मानी और आदमी को संसार में
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