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________________ 0 गीता दर्शन भाग-503 ..ध्यान रहे, जीवन बहुत विरोधाभासी है। गुरुओं ने सदा ही कहा | तब एक बूढ़े आदमी ने कहा, लेकिन तू उतरा हुआ था अमृतसर है कि गुरुओं से नहीं मिलेगा। लेकिन यह खबर भी उनसे ही मिली पर। अब तू उतर रहा है हरिद्वार पर। और इन दोनों में फर्क है। है। शास्त्रों ने सदा कहा है कि शास्त्र में क्या रखा है! लेकिन यह एक आदमी है, जिसने शास्त्र छुए ही नहीं। वह भी बड़ा प्रसन्न पता भी शास्त्र से ही चला है। चेष्टा करने से ही पता चलेगा कि | हो जाता है सुनकर कि शास्त्रों से कुछ भी नहीं मिलेगा। उसकी चेष्टा से नहीं मिलता है। और जब यह पता चलेगा, तो यह अनुभव | प्रसन्नता यह नहीं है कि वह समझ गया, उसकी प्रसन्नता यह है कि और है। अच्छा, तो जो शास्त्र पढ़-पढ़कर ज्ञानी बने जा रहे थे, वे भी कोई __दो तरह के लोग हैं। मैंने सुना है, एक बार ऐसा हुआ कि एक ज्ञानी नहीं हैं। मैं पहले से ही उतरा हुआ हूं! अगर तुमको उतरना ही तीर्थ की यात्रा पर जाने वाले लोगों की भीड़ थी एक स्टेशन पर। | है, तो हम पहले से ही उतरे हुए हैं। अगर एक बार फिर ज्ञान को सारे लोग जा रहे थे हरिद्वार। शायद अमृतसर का स्टेशन था। और छोड़कर अज्ञानी बनना पड़ेगा, तो हम तो अज्ञानी पहले से ही हैं! एक आदमी कहने लगा कि मैं ट्रेन में तभी चढूंगा जब मुझे फिर तो तुमने कमाई ही क्या की! तुमने व्यर्थ समय गंवाया। और नाहक उतरना न पड़े। और अगर उतरना ही है, तो चढ़ने का फायदा क्या। अकड़ रहे थे कि शास्त्र पढ़ लिया। वेद के ज्ञाता हो गए! वह आदमी ठीक तर्क की बात कह रहा था। वह कह रहा था, लेकिन उसको पता नहीं है कि एक अज्ञान ज्ञान के पहले का है। अगर इस ट्रेन में से उतरना ही है-बहुत भीड़-भड़क्का था और | और एक अज्ञान वह है जो ज्ञान के बाद आता है। ज्ञान के बाद के घुसना भी बहुत मुश्किल था—उस आदमी ने कहा कि अगर इसमें | अज्ञान से ज्ञान के पहले के अज्ञान का कोई भी संबंध नहीं है। कहां से उतरना ही है, तो इतनी दिक्कत चढ़ने की क्या करनी! हम तो अमृतसर! कहां हरिद्वार! उनमें बड़ी यात्रा का फर्क है। उतरे ही हुए हैं। और अगर इतनी मुसीबत करके जान जोखिम में । ज्ञान के पहले जो अज्ञान है, वह सिर्फ अज्ञान है। ज्ञान के बाद, डालकर भीतर घुसना है, तो फिर एक बात पक्की कर ली जाए कि | | जब ज्ञान को भी कोई छोड़ देता है, तब जो अज्ञान घटित होता है, इसमें से उतरना तो नहीं पड़ेगा! वह चित्त की निर्दोषता है, निर्भारता है। वह अज्ञान नहीं है, वही उसके मित्रों ने कहा कि बातचीत में समय मत गंवाओ। सीटी | ज्ञान है। बजी जा रही है, ट्रेन जा रही है। उन्होंने जबरदस्ती खींचकर...।। इसलिए सुकरात ने कहा है कि जब कोई जान लेता है, तो वह वह आदमी चिल्लाता ही रहा। वह ज्ञानी था! वह आदमी चिल्लाता कह देता है कि अब मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। इसलिए उपनिषदों ही रहा कि पहले यह तो पक्का पता चल जाए कि इससे उतरना तो | | ने कहा है कि अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी नहीं पड़ेगा? इतनी मुश्किल से चढ़ रहे हैं। हाथ-पैर टूटे जा रहे हैं। महाअंधकार में भटक जाते हैं! तो फिर बचेगा कौन? ये उपनिषद हड्डियां खराब हुई जा रही हैं। तुम मुझे खींचे जा रहे हो। यह तो कहते हैं, अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी और बताओ कि इससे उतरना तो नहीं पड़ेगा? उन्होंने कहा, यह पीछे | | महाअंधकार में भटक जाते हैं। तो फिर बचेगा कौन? समझ लेंगे। तुम पहले अंदर! उसको किसी तरह खिड़की से अंदर | वह बचेगा, जो ज्ञान के बाद आने वाले अज्ञान को उपलब्ध होता कर लिया। | है। जो नहीं खोजते, वे तो परमात्मा को पाते ही नहीं। जो खोजते खैर, वह आदमी किसी तरह अंदर हो गया। फिर हरिद्वार पर | हैं, वे और दूर निकल जाते हैं। लेकिन खोज के बाद भी खोज के उतरने की नौबत आ गई। वह आदमी फिर कहने लगा कि मैंने | | छोड़ देने की एक घटना है, वे उसे पा लेते हैं। पहले ही कहा था, अगर उतरना ही है, तो चढ़ने से क्या मतलब | | ये तीन बातें हैं। आप, जो कि खोज ही नहीं रहा है। साधु, था। हम तो उतरे ही हुए थे। उसके मित्रों ने कहा, उतरो भी। अब । | संन्यासी, पंडित, खोज रहा है-कोई तप में, कोई शास्त्र में, कोई यह गाड़ी यहां से जाएगी। फिर उसे खींचने लगे। वह आदमी कहने | कहीं और। और एक तीसरा ज्ञानी, परमहंस, जो खोज भी छोड़ लगा, तुम हो किस तरह के लोग! कभी चढ़ने के लिए खींचते हो, दिया, शास्त्र भी छोड़ दिया। जो अब बैठ गया, जैसा है वैसा ही कभी उतरने के लिए खींचते हो! और तुम्हीं! और तुमको इतनी भी हो गया। अब कहीं भी नहीं खोजने जाता। बुद्धि नहीं आती कि तुम दोनों काम कर रहे हो उलटे! मैं तो पहले । यह जो न जाने वाली चेतना है, यह भीतर प्रवेश कर जाती है। ही उतरा हुआ था। | यह न जाने वाली चेतना स्वयं में प्रज्वलित हो जाती है। यह कहीं 430
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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