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________________ भूमिका सृजन का आनंद उत्सव विगत बीस वर्षों से मैं ओशो रजनीश का साहित्य पढ़ता रहा हूं। इसे प्रचलित अर्थों में साहित्य नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह लिखा नहीं, बोला गया है। यह प्र-वचन है। यह साहित्य ओशो रजनीश की वाणी है। जब इसे पढ़ रहे हों तब भी यह वाणी सुनाई देती है। ऐसा नहीं है कि केवल स्थूल कान इसे सुनते हैं, आपकी अंतरात्मा भी इसे सुनती है। यह आत्म-विद्या की बुद्धत्व प्राप्त वाणी है। __ओशो रजनीश की भाषा एक अलौकिक अनुभूति है। भाषा का उपयोग तो हम सभी करते हैं। हम सोचते हैं तो भाषा के माध्यम से और उसे अभिव्यक्त करते हैं तो भी भाषा का ही उपयोग करते हैं। लेकिन हमारी भाषा एक कुशल, चतुर साधन की तरह व्यवहार करती है। हमारी भाषा, कहने के पश्चात समाप्त होती है, गतप्राण होती है। ओशो रजनीश की भाषा विचार वहन करने के साथ-साथ तत्व चिंतन भी करती है। परंपरागत परिकल्पनाओं, विश्वासों का वह कई बार कठोर होकर खंडन भी करती है। तथापि यह भाषा, कहने के बाद समाप्त नहीं होती। यह भाषा एक सर्जनशील स्थिति बन जाती है ' और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में बसे हुए चेतना केंद्र की ओर ले जाती है। सुनते हैं कि कृष्ण की बांसुरी सुनकर गोप-गोपियां, पशु-पक्षी, सरिता-सरोवर, वृक्ष-लता स्वयं को भूल जाते थे। ओशो रजनीश की भाषा उनके अधरों पर कृष्ण की बंसी हो जाती है। गीता-दर्शन के इस पांचवें खंड में, गीता के दसवें और ग्यारहवें अध्याय पर ओशो रजनीश द्वारा दिए हुए सत्ताइस प्रवचन सम्मिलित हैं। गीता का दसवां अध्याय विभूति योग कहलाता है। एक तरह से इस दसवें अध्याय की रूपरेखा नौवें अध्याय के परिशिष्ट जैसी है। साधारण मनुष्य के लिए योगमार्ग दुर्गम है। इस मार्ग से साधना का आरंभ कर समाधि की स्थिति तक पहुंचना साधारण व्यक्ति के बस की बात नहीं। स्वभावतः, हो सकता है हताशा में घिरकर वह इस मार्ग को ही त्याग दे। इसीलिए नौवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने यह आश्वासन दिया है, “जो मुझे भक्ति से युक्त होकर कोई फूल, फल, पत्ते या थोड़ा सा जल भी अर्पित करता है तो उसकी वह भेंट मैं प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करता हूं।" नौवें अध्याय में उपासना की राजविद्या का विवेचन करने के उपरांत दसवें अध्याय में श्रीकृष्ण स्वयं की विभूति का अर्थात अपने प्रकट रूप का वर्णन करते हैं। यह सृष्टि परमात्मा का प्रकट रूप ही है। उनके श्रीमुख से इस विभूति-रूप का वर्णन सुनकर अर्जुन के चित्त में ईश्वर का विराट रूप देखने की इच्छा उदित होती है। वह कृष्ण से कहता है, “यदि आप समझते हैं कि मैं वह रूप देख सकता हूं तो हे योगेश्वर, आप अपना अव्यय रूप मुझे दिखाइए। अर्जुन की इच्छा-पूर्ति की खातिर भगवान उसे ग्यारहवें अध्याय में अपना विराट रूप दिखाते हैं। यह ग्यारहवां अध्याय विश्व रूप दर्शन योग के नाम से जाना जाता है। यह वर्णन काव्यात्मक रूप से भी एक अपूर्व अनुभूति देता है। ___हमने शिक्षक अनेक देखे हैं। हममें से अनेक लोगों को सिखाने का अनुभव है। जो लोग गीता सिखाते हैं वे कतिपय पांडित्यपूर्ण संदर्भ देकर गीता का अर्थ समझाते हैं। ये अर्थ उस शिक्षक की औकात से बड़े होते हैं। अतः इस शिक्षा में पांडित्य का दर्शन तो होता है परंतु प्रतीति-जन्य वाणी का स्पर्श इसे नहीं होता। ओशो रजनीश के प्रवचन सुनते हुए या पढ़ते हुए हमें यह महसूस नहीं होता कि हम कोई पांडित्यपूर्ण प्रवचन सुन रहे हैं। उनके वचनों से झरती हुई अनुभूति हमें छूती रहती है। कलकल बहता हुआ झरना कोई संगीत सिखाने का इरादा नहीं रखता। उसका होना ही एक गीत होता है, वह बाहर से अर्जित किया हुआ नहीं होता। फूल खिलता है और अपनी खुशबू बिखेरता है। ओशो के प्रवचन और सिखावन कुछ
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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