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________________ 8 अज्ञेय जीवन-रहस्य 8 नदी भाग रही है सागर से मिलने को, लेकिन एक रेगिस्तान में ___ लेकिन नदी को भरोसा कैसे आए! नदी ने कहा, यह मेरा भटक गई, एक मरुस्थल में भटक गई। सागर तक पहुंचने की | अनुभव नहीं है। मिटने की हिम्मत नहीं जुटती। और फिर अगर मैं कोशिश व्यर्थ मालूम होने लगी, और नदी के प्राण संकट में पड़ सागर से मिल भी गई मिटकर, तो सागर में मेरा होना रहेगा! मैं गए। रेत नदी को पीने लगी। दो-चार कदम चलती है, और नदी बचूंगी! क्या भरोसा? कैसे श्रद्धा करूं? जो मेरा अनुभव नहीं है, खोती है, और सिर्फ गीली रेत ही रह जाती है। उसे कैसे मानूं? नदी बहुत घबड़ा गई। सागर तक पहुंचने के सपने का क्या ___ तो उस मरुस्थल की रेत ने कहा, दो ही उपाय हैं। या तो अनुभव होगा? नदी ने रोकर, चीखकर रेगिस्तान की रेत से पूछा कि क्या | हो, तो मानना आ जाता है; और या मानना हो, तो अनुभव की यात्रा मैं सागर तक कभी भी नहीं पहुंच पाऊंगी? क्योंकि रेगिस्तान मालूम | शुरू होती है। अनुभव तुझे नहीं है, और बिना यह माने कि मिटकर पड़ता है अनंत, और चार कदम मैं चलती नहीं हूं और रेत में मेरा | भी तू बचेगी, तुझे अनुभव भी कभी नहीं होगा। इसे तू श्रद्धा से पानी खो जाता है, मेरा जीवन सूख जाता है। मैं सागर तक पहुंच | | स्वीकार कर ले। पाऊंगी या नहीं? परम वचन का अर्थ है, जो हमारा अनुभव नहीं है, लेकिन रेत ने कहा कि सागर तक पहुंचने का एक उपाय है। ऊपर देख, जिसकी हमें प्यास है। जिससे हमारा परिचय नहीं है, लेकिन हवाओं के बवंडर जोर से उड़े चले जा रहे हैं। रेत ने कहा कि अगर जिसकी हमारे हृदय में आकांक्षा है। जिसे हमने जाना नहीं है, तू भी हवाओं की तरह हो जा, तो सागर तक पहुंच जाएगी। लेकिन लेकिन जिसे खोजना है। ऐसी जिसकी अभीप्सा है, उसे कहीं न अगर नदी की तरह ही तूने सागर तक पहुंचने की कोशिश की, तो कहीं किसी न किसी क्षण में ऐसा कदम भी उठाना पड़ेगा, जो रेगिस्तान बहुत बड़ा है, यह तुझे पी जाएगा। और हजारों-हजारों अज्ञात में है, अननोन में है। साल की कोशिश के बाद भी तू एक दलदल से ज्यादा नहीं हो अर्जुन सरिता की भांति है। उसे कुछ भी पता नहीं है। वह जिस पाएगी, सागर तक पहुंचना बहुत मुश्किल है। तू हवा की यात्रा पर | अज्ञात सत्य को जानने की प्रेरणा से भर गया है, उसका उसे कोई निकल। भी अनुभव नहीं है। वह जिस परम गुह्य की तलाश कर रहा है, उस नदी ने कहा कि रेत, तू पागल तो नहीं है? मैं नदी हूं, मैं | प्रश्न पूछ रहा है, जिज्ञासा कर रहा है, उसकी उसे कोई भी प्रतीति आकाश में उड़ नहीं सकती! रेत ने कहा कि तू अगर मिटने को राजी | नहीं है। इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं कि मैं परम वचन तुझसे हो, तो आकाश में भी उड़ने का उपाय है। अगर तू तप जाए, कहता हूं। वाष्पीभूत हो जाए, तो तू हवाओं पर सवार हो सकती है; हवाएं तेरे परम वचन का दूसरा अर्थ हुआ कि अर्जुन, अभी तुझे श्रद्धा से वाहन बन जाएंगी और तुझे सागर तक पहुंचा देंगी। ही मान लेना पड़ेगा। जैसा तू है, ऐसी स्थिति में तेरी बुद्धि काम उस नदी ने कहा, मिटने को! मैं स्वयं रहते ही सागर से मिलने नहीं पड़ेगी। अगर तू श्रद्धा से मान ले और यात्रा पर निकल जाए की आकांक्षा रखती हूं, मिटकर नहीं। मिटकर मिलने का मजा ही | रूपांतरण की, तो तू भी जान सकेगा। जो मैं कह रहा हूं, वह सत्य क्या? अगर मैं मिट गई और सागर से मिलना भी हो गया, तो | है। लेकिन वह सत्य तेरे रूपांतरित चित्त को ही अनुभव में उसका सार क्या है? मैं बचते हुए, रहते हुए सागर से मिलना आएगा। तू जैसा है, वैसा ही उस सत्य से तेरा कोई संबंध नहीं हो चाहती हैं। सकता। परम वचन का यह भी अर्थ है कि उसे श्रद्धा से ही नदी की बात को सुनकर रेत ने कहा, तब फिर कोई उपाय नहीं स्वीकार कर लेना पड़ेगा। है। आज तक सागर से मिलने जो भी चला है, मिटे बिना नहीं मिल और तीसरा अर्थ भी खयाल में ले लें, तो फिर यह सूत्र हमारी पाया है। और जिसने अपने को बचाने की कोशिश की है, वह समझ में आसान हो जाएगा। मरुस्थल में खो गया है। मैंने और नदियों को भी मरुस्थल में खोते परम वचन का अर्थ तीसरा, आत्यंतिक अर्थ है, ऐसा वचन, जो देखा है, और मैंने कुछ नदियों को आकाश पर चढ़कर सागर तक | समय और काल से रूपांतरित नहीं होता, परिवर्तित नहीं होता। पहुंचते भी देखा है। तू मिटने को राजी हो जा। तुझे अभी पता नहीं हमारे सारे सत्य सामयिक हैं। समय बदल जाए, सत्य को बदलना कि मिटकर ही तू वस्तुतः सागर हो पाएगी। पड़ता है। हमारे सभी सत्य समय की शर्तों से बंधे हुए हैं। लेकिन
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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