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________________ ॐ मृत्यु भी मैं हूं 8 विनाश नए सृजन को जन्म देता है। भारत का मानना रहा है सदा से नान-यूक्लिडियन। कोई रेखा और रुद्रों में शंकर हूं! तो कृष्ण यह कह रहे हैं कि विनाश से भी सीधी नहीं है। और जीवन की कोई गति सीधी नहीं हो सकती, तू परेशान और पीड़ित मत हो। और मृत्यु भी तुझे भयभीत न करे। क्योंकि कोई रेखा ही सीधी नहीं हो सकती। सब गति वर्तुलाकार है, तू मृत्यु में भी चाहे तो मुझे देख सकता है, क्योंकि वह विनाश की सर्कुलर है। बच्चा, जवान, बूढ़ा; जन्म और फिर मृत्यु। जहां जन्म अंतिम शक्ति भी मैं ही हूं। | होता है, वर्तुल वहीं पूरा होकर मृत्यु बन जाता है। जैसे व्यक्ति के जीवन में मृत्यु है, वैसे ही सृष्टि के जीवन में ___ इसलिए बच्चे और बूढ़े बहुत अंशों में एक जैसे हो जाते हैं। और विनाश है या प्रलय है। एक-एक व्यक्ति मरता है और जन्मता है, जो समाज बूढ़ों के साथ बच्चों जैसा व्यवहार करना नहीं जानता, ऐसे ही सृष्टि भी जन्मती है और मरती है! जैसे व्यक्ति बच्चा होता वह समाज सुसंस्कृत नहीं है। वह समाज असंस्कृत है। लेकिन है, फिर जवान होता है, फिर बूढ़ा होता है, फिर मरता है। एक पश्चिम में बूढ़े के साथ बच्चों जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता, वर्तल. एक सर्किल परा करता है। वैसे ही भारतीय दष्टि है कि | क्योंकि पश्चिम की धारणा है कि चीजें सीधी जा रही हैं, पीछे कुछ समस्त जीवन भी बच्चा होता है, जवान होता है, बूढ़ा होता है, मृत्यु नहीं लौटता, वर्तुलाकार नहीं हैं। चीजें एक रेखा में बढ़ती चली को उपलब्ध होता है। | जाती हैं, और जो प्रारंभ था, वह फिर कभी दुबारा नहीं मिलेगा। पश्चिम में चिंतन की जो धारा है, वह लीनियर है, एक रेखा में | लेकिन भारत मानता है, सभी गतियां वर्तुल में हैं। चाहे पृथ्वी है। इसलिए पश्चिम में एवोल्यूशन का खयाल पैदा हुआ, विकास घूमती हो सूरज के आस-पास, और चाहे पृथ्वी घूमती हो अपनी का खयाल पैदा हुआ। डार्विन ने, हक्सले ने और दूसरे विचारकों कील पर, और चाहे सूरज किसी महासूर्य का चक्कर लगाता हो, ने विकास की धारणा को जन्म दिया। विचारणीय है कि भारत ने और चाहे समस्त सूर्य किसी महाकेंद्र की परिक्रमा करते हों, और कभी विकास की ऐसी धारणा को जन्म क्यों नहीं दिया? चाहे ऋतुएं आती हों, और चाहे बचपन, जवानी, बुढ़ापा होता हो, पश्चिम की चिंतना मानती है कि जीवन एक रेखा में चलता है, सभी चीजें एक वर्तल में घमती हैं। यह समस्त सष्टि भी एक वर्तल जैसे रेल की पटरी जाती हो, एक रेखा में सीधा। लेकिन भारत | | में घूमती है। गति मात्र वर्तुलाकार है। गति का अर्थ ही सर्कुलर है। मानता है, इस जगत में सीधी रेखा तो खींची ही नहीं जा सकती। इसलिए हमने संसार नाम दिया है इस जगत को। संसार का अर्थ यह बहुत हैरानी की बात है। अगर आप गणित पढ़ते हैं, या | होता है, दि व्हील। संसार का अर्थ होता है, चाक, घूमता हुआ। ज्यामिति, या ज्यामेट्री पढ़ते हैं और यूक्लिड को समझा है आपने, | वह जो भारत के राष्ट्रीय ध्वज पर चक्र है, वह चक्र कभी बौद्धों तो आपक हेंगे कि गलत बात है, क्योंकि यूक्लिड कहता है कि ने संसार के लिए निर्मित किया था। संसार एक चक्र की भांति घूमता सीधी रेखा खींची जा सकती है। दो बिंदओं के बीच जो निकटतम है। और जो इस चक्र में फंसा रह जाता है, वह घमता ही रहता है, दूरी है, वह सीधी रेखा है, स्ट्रेट लाइन है। लेकिन अभी पिछले | घूमता ही रहता है। बार-बार उसी चक्र में घूमता रहता है। पचास वर्षों में पश्चिम में नान-यूक्लिडियन ज्यामेट्री का जन्म हुआ तो बुद्ध ने कहा था, जो इस चक्र के बाहर छलांग लगा जाए, है, और वह भारत से मेल खाती है। वही मुक्त है। जन्म और मृत्यु में जो घूमता है, वह जन्म में चक्कर नान-यूक्लिडियन ज्यामेट्री कहती है कि कोई भी रेखा सीधी नहीं | लगाता रहता है बार-बार। जन्म के बाद मृत्यु होती है, ठीक वैसे है। अगर हम उस रेखा को दोनों तरफ बड़ा करते जाएं, तो अंततः ही मृत्यु के बाद जन्म पुनः हो जाता है। बचपन के बाद जवानी होती पूरी पृथ्वी परं फैलकर वर्तुल बन जाएगा; किसी भी रेखा को; है, जवानी के बाद बुढ़ापा होता है, बुढ़ापे के बाद मृत्यु होती है; क्योंकि पृथ्वी गोल है। पृथ्वी पर हम कोई सीधी रेखा नहीं खींच मृत्यु के बाद पुनः जन्म, पुनः बचपन, पुनः जवानी; और एक सकते। और भी कहीं हम सीधी रेखा नहीं खींच सकते। कोई भी वर्तुलाकार परिभ्रमण होता रहता है। सीधी रेखा हमें सीधी मालूम पड़ती है, क्योंकि वह इतने बड़े वर्तुल यह हमारे छोटे-से व्यक्ति के जीवन में जैसा है, वैसा ही फैलकर का हिस्सा होती है कि उस वर्तुल का हमें अंदाज नहीं होता। सब | | विराट अस्तित्व के जीवन में भी है। जगत के जन्म को सृष्टि कहते सीधी रेखाएं वर्तुल के टुकड़े हैं, खंड हैं। और अगर हम उनको हैं और जगत की मृत्यु को प्रलय कहते हैं। और पूरा जगत फिर प्रलय बढ़ाते ही चले जाएं, तो वर्तुल निर्मित हो जाएगा। | के बाद पुनः जन्म पाता है और पुनः यात्रा पर निकल जाता है। 131
SR No.002408
Book TitleGita Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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