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3 गीता दर्शन भाग-53
बुद्धिनिमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
आश्चर्य की बात कि हम जिस अखंड की खोज में मंदिर और सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ।।४।। मस्जिद और गुरुद्वारे में जाते हैं, हम
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। हमारा गुरुद्वारा भी हमें खंड-खंड करने में सहयोगी होते हैं। हम भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ।।५।। मंदिर और मस्जिद के बीच भी एक को नहीं देख पाते हैं। हिंदू और ___महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। मुसलमान और ईसाई के पूजागृहों में भी हमें फासले की दीवालें मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।। ६ ।। और शत्रुता की आड़ें दिखाई पड़ती हैं। मंदिर भी अलग-अलग हैं, और हे अर्जुन, निश्चय करने की शक्ति एवं तत्वज्ञान तो यह पूरा जीवन तो कैसे एक होगा? और अमूढ़ता, क्षमा, सत्य तथा इंद्रियों का वश में करना ___ मंदिर अलग नहीं हैं, लेकिन हमारे देखने का ढंग केवल खंड
और मन का निग्रह तथा सुख-दुख, उत्पत्ति और प्रलय | को ही देख पाता है, अखंड को नहीं देख पाता है। तो हम जहां भी एवं भय और अभय भी तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, अपनी दृष्टि ले जाते हैं, वहां ही हमें टुकड़े दिखाई पड़ते हैं। वह दान, कीर्ति और अपकीर्ति, ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार | समग्र, जो सभी को घेरे हुए है, हमें दिखाई नहीं पड़ता है। के भाव मेरे से ही होते हैं।
अर्जुन की भी तकलीफ वही है। उसे भी अखंड का कोई अनुभव और हे अर्जुन, सात महर्षिजन और चार उनसे भी पूर्व में होने | नहीं हो रहा है। उसे दिखाई पड़ता है, मैं हूं। उसे दिखाई पड़ता है, वाले सनकादि तथा स्वायंभुव आदि चौदह मनु, ये मेरे में | मेरे मित्र हैं, प्रियजन हैं, शत्रु हैं। उसे दिखाई पड़ता है कि सुख क्या भाव वाले सब के सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, कि । | है, उसे दिखाई पड़ता है कि दुख क्या है। उसे दिखाई पड़ता है कि जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है। | पाप क्या है, पुण्य क्या है। उसे सब दिखाई पड़ता है; सिर्फ एक,
| जो सभी के भीतर छिपा हुआ है, वह भर दिखाई नहीं पड़ता है।
और इसलिए कृष्ण और अर्जुन के बीच जो चर्चा है, वह दो दृष्टियों से आकाश ने सबको घेरा हुआ है, जैसे जीवन की | के बीच है। ऊर्जा सभी में परिव्याप्त है, वैसे ही कण-कण, चाहे ___ अर्जुन खंडित दृष्टि का प्रतीक है और कृष्ण अखंडित दृष्टि के। पदार्थ का हो
का, परमात्मा की ही कृष्ण समग्र की, दि होल, वह जो परा है. उसकी बात कर रहे हैं अभिव्यक्ति है। कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन से कह रहे हैं कि मेरे | और अर्जुन टुकड़ों की बात कर रहा है। शायद इसीलिए दोनों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पहले इस मौलिक धारणा को | बीच बात तो हो रही है, लेकिन कोई हल नहीं हो पा रहा है। उन समझ लें, फिर हम सूत्र को समझें।
| दोनों का जीवन को देखने का ढंग ही भिन्न है। जैसा हम देखते हैं, तो सभी चीजें अलग-अलग मालूम पड़ती ___ इस सूत्र में कृष्ण अर्जुन को एक-एक बात गिना रहे हैं कि मैं हैं। कोई एक ऐसा तत्व दिखाई नहीं पड़ता, जो सभी को जोड़ता हो। | कहां-कहां हूं। इतना ही कहना काफी होता कि मैं सब जगह हूं। इतना जब हम देखते हैं, तो माला के गुरिए ही दिखाई पड़ते हैं। वह माला | ही कहना काफी होता कि सभी कुछ मैं ही हूं। लेकिन यह बात अर्जुन के भीतर जो पिरोया हुआ सूत का धागा है, जो उन सबकी एकता है, | को स्पष्ट न हो पाएगी। अर्जुन को खंड-खंड में ही गिनाना पड़ेगा वह हमारी आंखों से ओझल रह जाता है। जब भी हम देखते हैं, तो |कि कहां-कहां मैं हूं। शायद उसे खंड-खंड में यह एक की झलक हमें खंड दिखाई पड़ते हैं, लेकिन अखंड का कोई अनुभव नहीं होता। मिल जाए, तो खंड खो जाएं और अखंड की प्रतीति हो सके। ___ यह अखंड का जब तक अनुभव न हो, तब तक परमात्मा की | | इसलिए कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, निश्चय करने की शक्ति एवं कोई प्रतीति भी नहीं है। इसीलिए हम कहते हैं कि परमात्मा को | | तत्वज्ञान और अमूढ़ता...। मानते हैं, मंदिर में श्रद्धा के फूल भी चढ़ाते हैं, मस्जिद में उसका । ये तीन शब्द बहुत कीमती हैं। निश्चय करने की शक्ति! स्मरण भी करते हैं, गिरजाघर में उसकी स्तुति भी गाते हैं। लेकिन । जैसा हमारे पास मन है, अगर हम ठीक से समझें, तो हम कह फिर भी वह परमात्मा, जिसके चरणों में हम सिर झुकाते हैं, हमारे सकते हैं, मन है अनिश्चय करने की शक्ति। मन का सारा काम ही हृदय के भीतर प्रवेश नहीं कर पाता है।
भीतर यह है कि वह हमें निश्चित न होने दे। मन जो भी करता है,