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अहिंसा संजमो तवो।
-दशवै० अ १ । गा १ पूर्वार्ध
साधु-पांच लक्षण वाले को साधु कहते हैं। साधु के पांच लक्षण कहे गये हैं
१-श्रमर के समान आहार वृत्ति। वृक्ष के फूल के रस को श्रमर मर्यादा सहित ग्रहण करता है, इतना ही रस ग्रहण करता है, जितना ग्रहण करने से पुष्प का क्षय न हो । भ्रमर रसपान करता हुआ फूल को किसी प्रकार का कष्ट नहीं देता और इस प्रकार निर्दोष भाव से अपनी आत्मा, शरीर ( भाव ) को तृप्त करता है।
जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । न य पुप्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ।।
-दशवै० अ १ । गा २
२-तत्त्व का ज्ञान-सूत्र-शास्त्र की जानकारी ( खमा बुद्धा ) ३-भाई, पुत्र आदि कुलादि के प्रतिबन्ध से रहित-निवृत्ति ( अणिस्सिया ) ४-नाना गृहस्थों से, एक से ही नहीं, आहार ग्रहण ( नाणापिंडरया ) ५-इन्द्रिय-दमन-( दंता)
त्यागी-भोग की वस्तुओं के नहीं होने से ( वत्थं गंधमंलकार इथिओ सयणा णि य ), नहीं मिलने से ( अच्छंदा ) जो उनका ( स्त्री ) (पर्यकादिक ) उपभोग नहीं कर सकता-भाव-लेकिन इच्छा करता है (जे न भुजति ) उसको त्यागी नहीं कहते हैं। लेकिन जो प्रिय और इष्टकारी भोग की वस्तु के होते हुए भी, मिलने पर भी स्वाधीन भाव से उसका त्याग करते हैं उनको त्यागी कहते हैं।
प्रवचन सारोद्धार में कहा है
इदिय ५, बल ३, ऊसासा १ उ १ पाण चउ छक्क सप्त अहव । इगि विगल असनी सन्नी नव दस पाणा य बोद्धव्वा ।।
-प्रवसा• गा १०६६
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