Book Title: Leshya kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan
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लेश्या-कोश
४३९ सुक्कलेसा तं चेव । से केणणं भंते ! एवं वुचइ-सुकलेसा जाव णो परिणमइ ? गोयमा! आगारभावमायाए वा जाव सुकलेस्साणं सा, णो खलु सा पम्हलेसा, तत्थगया ओसक्कइ, से तेणणं गोयमा! एवं वुधइ-'जाव णो परिणमई' ।
-पण्ण ० १७ । उ ५ । सू ५५ । पृ० ४५०-४५१
उपरोक्त सूत्र पर टीकाकार ने इस प्रकार विवेचन किया है
'से नूणं भंते !' इत्यादि, इह तिर्यमनुष्यविषयं सूत्रमनन्तरमुक्त, इदं तु देवनैरयिक विषयमवसे यं, देवनैरयिका हि पूर्वभवगतचरमान्तमुहूर्तादारभ्य यावत् परभवगतमाद्यमन्तमुहूर्त तावदवस्थितलेश्याकाः ततोऽमीषां कृष्णादिलेश्याद्रव्याणां परस्परसम्पर्केऽपि न परिणम्यपरिणामकभावो घटते ततः सम्यगधिगमाय प्रश्नयति-'से नूणं भंते !' इत्यादि, से शब्दोऽथशब्दार्थः, स च प्रश्ने, अथ नूनंनिश्चितं भदंत ! कृष्णलेश्या-कृष्णलेश्याद्रव्याणि नीललेश्या-नीललेश्याद्रव्याणि प्राप्य, प्राप्तिरिह प्रत्या सन्नत्वमानं गृह्यते न तु परिणम्यपरिणामकभावेनान्योऽन्यसंश्लेषः, तद्र पतया-तदेव-नीललेश्याद्रव्यगतं रूपं-स्वभावो यस्य कृष्णलेश्यास्वरूपस्य तत्तद्र पं तद्भावस्तद्र पता तया, एतदेव व्याचष्टे न तद्वर्णतया न तद्गन्धतया न तद्रसतया न तत्स्पर्शतया भूयो भूयः परिणमते, भगवानाह-हन्तेत्यादि, हन्त गौतम ! कृष्णलेश्येत्यादि, तदेव ननु यदि न परिणमते तहिं कथं सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यक्त्वलाभः, स हि तेजोलेश्यादिपरिणामे भवति सप्तमनरकपृथिव्यां च कृष्णलेश्येति, कथं चैतत् वाक्यं घटते ? 'भावपरावत्तीए पुण सुरनेरइयाणंपि छल्लेसा' इति [ भावपरावृत्तेः पुनः सुरनैरयिकाणामपि षड़ लेश्याः ] लेश्यान्तरद्रव्यसम्पर्कतस्तद्र.पतया परिणामासंभवेन भावपरावृत्तरेवायोगात्, अत एव तद्विषये प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह-'से केणढणं भंते !' इत्यादि, तत्र प्रश्नसूत्रं सुगमं निर्वचनसूत्रं-आकारः तच्छायामानं आकारस्य भावःसत्ता आकारभावः स एव मात्रा आकारभावमात्रा तयाऽऽकार
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