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लेश्या-कोश लेश्याओं का नामकरण वर्गों के आधार पर हुआ है। इस पर यह कल्पना की जा सकती है कि द्रव्यलेश्या के पुद्गल स्कंधों में वर्णगुण की प्रधानता है। यद्यपि आगमों में द्रव्यलेश्या के गंध-रस-स्पर्श गुणों का भी थोड़ा बहुत वर्णन है लेकिन इन तीन गुणों से वर्ण गुण का प्राधान्य अधिक है।
पुढवी - आउवणस्सइबाथरपत्तेसु लेस चत्तारि । गब्भे तिरिय-नरेसु छल्लेसा तिनि सेसाणं ।।
-प्रवसा० गा १११० । उत्तरार्ध
बादर पृथ्वीकाय, बादर अप्काय, बादर प्रत्येक वनस्पतिकाय में प्रथम चार लेश्या है। गर्भज तियंच और गर्भज मनुष्यों में छः लेश्या होती हैं बाकी में । ( बाकी के-अग्निकाय, वायुकाय, सूक्ष्म पृथ्वी काय, अपकाय, साधारण वनस्पतिकाय, पर्याप्त बादर पृथ्वी, जल, प्रत्येक वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय-समुच्छिम मनुष्य, संमुच्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय में । ) कृष्ण, नील व कापोतलेश्या होती हैं।
व्याख्या-भवनपति-वाणव्यंतर-ज्योतिषी-सौधर्म-ईशान देवलोक के देव पृथ्वीकायादि में उत्पन्न होने से कितनेक काल तक तेजोलेश्या सम्भव है। जिस लेश्या में जीव मरता है उसी लेश्या में परभव में जीव उत्पन्न होता है। परन्तु पूर्वभव के अन्तिम समय में अन्य लेश्या हो तथा आगामी भव के प्रथम समय में दूसरी लेश्या का परिणाम हो यह बात नहीं होती है । आगम में कहा है किजिस लेश्या के द्रव्य को लेकर जीवकाल करता है, उसी लेश्या में जीव उत्पन्न होता है। तिर्यच-मनुष्य आगामी भव सम्बन्धी लेश्या का काल अन्तमुहर्त व्यतीत होने पर तथा देव नारकी स्वयं-स्वयं की भवसम्बन्धी लेश्या का अन्तमुहूर्तकाल अवशेष रहता है तब परलोक में गमन करते हैं । ६६.२७ लेश्या और सम्यक्त्व
सम्मत्तस्सयं तीसु उवरिमासु पडिवज्जमाणओ होइ । पुव्व पडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेसाए ॥
-आव० अ ४. अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय ऊपर ( अन्तिम ) की तीन लेश्या होती है। सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद कृष्णादि छः लेश्याओं में से कोई एक लेश्या हो सकती है।
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